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Uvavaiya Suttar Sū, 41
सियत्ताए उबवत्तारो भवंति । तहिं तेसिं गतो तेरससागरोवमाई ठिती । अणाराहगा । सेसं तं चैव ।। १५ ।।
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श्रमण पर्याय का पालन कर उन पाप-स्थानों की आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते हुए मृत्यु काल आ जाने पर देहत्याग - मरण प्राप्त कर वे उत्कृष्ट लान्तक कल्प संज्ञक छट्टो देवलोक में किल्विषिक नामक देवों में, जिन का
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चाण्डाल की तरह साफ-सफाई करना कार्य होता है, किल्विषक देव के रूप से उत्पन्न होते हैं | अपने स्थान के अनुरूप वहाँ उनकी गति होती है । वहाँ उनकी स्थिति — आयुष्य - परिमाण तेरह सागरोपम प्रमाण होती है । वे आराधक नहीं होते हैं । अवशेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये ॥ १५ ॥
Such monks, when they pass away at a certain point in eternal time, without discussion and without atonement, are born in the heaven named Läntaka, among the Caṇḍāla-like gods, as valet gods. Their length of stay there is thirteen. sagaropamas. They do not propitiate rebirth there. The rest as before. 15
संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों का उपपात
Rebirth of Five-organ Animals with Mind
से जे इमे सणिपंचिदियतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवति तं जहा - जलयरा खहयरा थलयरा ।
ये जो संज्ञी - मन सहित, पंचेन्द्रिय — श्रोत्र, चक्ष, घाण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों से युक्त, पर्याप्त आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा तथा मन इन छ: पर्याप्तियों से युक्त, तर्यग्योनिक - पशु, पक्षी आदि के जीव होते हैं, जो इस प्रकार हैं : जलचर - जल में चलने वाले, खेचर - आकाश में उड़ने वाले, स्थलचर - पृथ्वी पर चलने वाले ।
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