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उववाइय सुत्तं सू० ४१
प्रवजित-दीक्षित श्रमण होते हैं, जो इस प्रकार हैं : आचार्य प्रत्यनीकआचार्य के विरोधी, उपाध्याय प्रत्यनीक—उपाध्याय के विरोधी, कुल प्रत्यनीक-कुल के विरोधी, गण प्रत्यनीक—गण के विरोधी, आचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाले, अवर्णवाद बोलने वाले, निन्दा करने वाले।
In the villages, towns, etc., till sanniveśas, those who are initiated in the Sramaņa order, but are opposed to the Acārya, to the Upadhyaya, to Kula, to Gana, who spread infamy of the Acārya and the Upādhyāya, who are disrespectful to him and who decry their achievements. .
बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति ।
वे असद्भाव-वस्तुतः जो नहीं है ऐसी बातों अथवा दोषों के आरोपण या उत्पादन तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा अपने को, दूसरों. को तथा स्व-पर इन दोनों को दुराग्रह-असत्य हठाग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए, अनहोनी बातों की आरोपण कल्पना में अर्थात् आशातना जनित पापों में निपतित करते हुए, विचरण करते हुए बहुत वर्षों तक 'श्रमण-पर्यायं का पालन करते हैं।
Such monks live for many years in the Sramaņa order by planting or generating wrong attitudes and false ideas in self, in others, in self as well as others, and in strengthening wrong attitudes and false ideas in self, in others and in self as well as others.
पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिा