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________________ Uvavaiya- Suttarn Sa. 38 वे परिव्राजक दान धर्म, शौच धर्म, शारीरिक शुद्धि तथा स्वच्छतामूलक आचार और तीर्थाभिषेक-तीर्थ स्थान का जन समुदाय में कथन करते हुए, विशेष रूप से समझाते हुए और युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हुए विचरण करते हैं। उनका मन्तव्य है कि, हमारे मतानुसार जा कुछ भी अशुचि होती हैं अर्थात् अपवित्र प्रतीत हो जाता है उसे मिट्टी लगा कर, जल से धो लेने पर पवित्र हो जाता है। इस प्रकार हम स्वच्छ--निर्मल शरीर तथा वेश युक्त और स्वच्छाचार-शुद्ध आचार युक्त हैं, शुचि-पवित्र, शुच्याचारनिर्मल आचार युक्त हैं, अभिषेक--स्नान द्वारा जल से अपनी आत्मा को पवित्र कर निर्विघ्नतया स्वर्ग जायेंगें। उन परिव्राजकों के लिये मार्ग में चलते समय के अतिरिक्त अवट-कुएँ, तालाब, नदी, वापी-बावड़ी/चतुष्कोण जलाशय, पुष्करिणी-कमल युक्त गोलाकार बावड़ी, दीपिका-सारणी/ विशाल सरोवर, गुंजालिका-वक्राकार से बना हुआ तालाब, सर–जलाशय तथा सागर में प्रवेश करने का कल्प या कल्प्य नहीं है अर्थात वे मार्ग में चलते समय के सिवाय इनमें प्रविष्ट नहीं होते हैं। ऐसी उनकी मर्यादा है, व्रत है। Who live on by making offers, by practising purity and taking holy dips, who impart these 'to others, who propound these saying : "In this manner, we purify our body, our clothes, our practices and hence our soul. By taking ablution with water, we shall go to heaven without difficulty", who, if it is not on their way, do not go to a well, tank, river, pond (with lotus in or with constructed embankment), preserved tank, gunjalikā, sea or ocean. णो कप्पइ सगडं वा जाव...संदमाणिवा दूरहित्ता णं गच्छित्तए। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ आसं वा हत्थिं वा उट्टं वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरुहित्ता णं गमित्तए। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छा इ वा जाव मागहपेच्छा इ वा पिच्छित्तए। तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हरिआणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए ।
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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