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________________ 220 Uvavaiya Suttam Su. 38 ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियाय पाउणंति । बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइअ अप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तहिं तेसिंगती तहिं तेसिंठिती... सेसं तं चेव । णवरं पलिओवमं वाससहस्समब्भहियं ठिती ॥। ११ ॥ जीव ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, तथा सन्निवेश में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होते हैं और जो प्रव्रजित -- दीक्षित होकर अनेक रूप में श्रमण होते हैं, जो इस प्रकार हैं : कान्दपिक - नानाविध हँसी-मजाक या हास-परिहास करने वाले, को कुचिक - आँख, मुंह, हाथ, पैर आदि से भांड़ के समान कुत्सित चेष्टाएँ करते हुए स्वयं हँस कर दूसरों को हँसाने वाले, मौखरिक - असम्बद्ध बोलने वाले, गीतरतिप्रिय —— गीतप्रिय व्यक्तियों को चाहने वाले या गान-युक्त क्रीडा में रुचिशील, नर्तनशील - नाचने की प्रकृति वाले, जो अपने-अपने जीवनक्रम के अनुरूप आचार का पालन करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करते हैं, बहुत वर्षों तक श्रमण जीवन का पालन कर अन्तिम समय में उस स्थान - अतिचार दोष सेवन की आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते हैं अर्थात् गुरुजन के समक्ष आलोचना कर दोषों से निवृत्त नहीं होते हैं, वे मृत्युकाल आने पर शरीर त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में - प्रथम देवलोक में कान्दपिकक - हास्य क्रीड़ा प्रधान देवों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी गति, वहाँ उनकी स्थिति -- आयुष्य परिमाण, अवशेष वर्णन पूर्व की तरह जानना चाहिये । उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है ॥ ११ ॥ Those who are born as men in villages, etc., etc., and are initiated into the orders of monks of jesters, fools, talkers, song-lovers, or dancers, such ones who live for many years in their respective orders and then without due confession (pratikramana) pass away, are born, on death at some point in eternal time, as the
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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