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Uvavaiya Suttam Sa. 38
highest order, careless of his physical frame, centred within his body but capable to burn things over distant regions with his super human capacity, sat neither near nor far from Bhagavān Mahāvīra, with his thighs erect and face cast low, (in utkațuka posture ), fully concentrated within self in meditation, enriching his soul by restraint and penance.
तए णं से भगवं गोअमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले . उप्पण्णसड्डे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले संजायसड्ड संजायसंसए संजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्डे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोहल्ले उट्ठाए उट्ठ ।
उसके बाद उन गौतम स्वामी के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा उत्पन्न हुई, संशय-अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा उबुद्ध हुई, कुतूहल की प्रवृत्ति पैदा हुई। पुनः उनके अन्तर्मन में श्रद्धा का भाव उभरा, संशय समुत्पन्न हुआ और कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय पैदा हुआ एवं कुतूहल उत्पन्न हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा जागृत हुई, संशय उत्पन्न हुआ तथा कुतूहल की प्रवृत्ति उभरी। अतः वे उठकर खड़े हुए।
Afterwards Gautama had a feeling of desire, doubt and curiosity, had a genesis of desire; doubt and curiosity, had the
acquisition of desire, doubt and curiosity, had the personifica• tion of a desire, doubt and curiosity in him, and he stood up.
उढाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति । तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं ..पयाहिणं करेति । तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति.
णमंसति । वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासणे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसाणे • अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी : .