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________________ 182 Uvavaiya Suttam Sh. 34 . . सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति। फुसइ पुण्णपावे। पच्चायंति जीवा, सफले कल्लाणपावए। सुचीर्ण कर्म-सुन्दर रूप में-शुभ या प्रशस्त रूप में संपादित दान, शील, तप आदि हेतु रूप पुण्य कर्म उत्तम-सुखमय फल देने वाले हैं। तथा दुश्चीर्ण--अशुभ या अप्रशस्त रूप में संपादित-आचरित पापमय कर्म अशुभदुःखमय फल देने वाले हैं । जीव पुण्य-पाप का स्पर्श-बन्ध करता है जिससे जीवों का जन्म-मरण होता है। कल्याण-शुभ कर्म पुण्य, पाप-अशुभ कर्म फल युक्त हैं। वे निष्फल नहीं होते हैं। Right practices yield beneficial results, wrong practices yield harmful results. Souls bind virtue and vice, pass from one existence to another, virtue and vice yield results. — धम्ममाइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संसुद्धे पडिपुणे णेआउण सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिज्जामग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमंग्गे इहट्ठिआ जीवा सिझति वुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खणमंतं करंति । एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। भगवान महावीर प्रकारान्तर से धर्म का आख्यान-प्रतिपादन करते हैं। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन-जिन शासन या प्रत्येक संसारी जीव की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला, आत्मानुशासनमय प्रवचन-- उपदेश सत्य है। अनुत्तर-सवोत्तम, अलौकिक है। केवल-केवली सर्वज्ञ द्वारा भाषित या अद्वितीय है। प्रतिपूर्ण-प्रवचन गुणों से सर्वथा सींग सम्पन्न है। संशुद्ध-. सर्वथा निर्दोष या अत्यधिक शुद्ध, नैयायिक-प्रमाण से अबाधित है या न्यायसंगत है। शल्यकर्तन -माया, निदान, मिथ्यादर्शन आदि शल्यों
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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