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उववाइय सुत्तं सू० ३४
अस्थि पाणावायवे रमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाण वेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव .. मिच्छादंसण सल्लविवेगे ।
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प्राणातिपात विरमण - हिंसा से विरत होना, मृषावाद विरमण -असत्य से विरत होना, अदत्तादान विरमण -- चोरी से विरत होना, मैथुन विरमण - मैथुन से विरत होना, परिग्रह विरमण -- परिग्रह से विरत होना, यावत् ( क्रोध से विरत होना, मान से विरत होना, माया से विरत होना, लोभ से विरत होना, प्रेम से विरत होना, द्वेष से विरत होना, कलह से विरत होना, अभ्याख्यान से विरत होना, पैशुन्य से विरत होना, पर परिवाद से विरत होना, अरति रति से विरत होना ) - मिथ्यादर्शनशल्य विवेक - मिथ्या विश्वास रूप काँटे का त्याग करना और मिथ्या विश्वास रूप काँटे का यथार्थ ज्ञान होना ।
There are withdrawal from slaughter, from falsehood, from acquisition without bestowal, from sex behaviour and from accumulation of property, till there is consciousness about the thorn of wrong faith.
सव्वं अस्थिभावं अथित्ति वयति । सव्वं णत्थि भावं णत्थित्ति वयति ।
सभी अस्तित्व भाव अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्व (धर्म) को लिये हुए है यह कहा है। और सभी नास्तित्व भाव पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल एवं पर भाव की अपेक्षा से नहीं है यह कहा है ।
I ordain, all that exists does exist. I propound, all that does not exist does not exist.