SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 Uvavāiya Suttaṁ Sū. 32 पज्जुवासणाए पज्जुवासइ। तं जहा--काइयाए वाइयाए माणसियाए । काइयाए ताव संकुइअग्गहत्यपाद सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ । वाइयाए- जं जं भगवं वागरेइ-एवमेअं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेअं भंते ! इच्छिअमेअं भंते ! पडिच्छिअमेअं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेअं भंते ! से जहेयं तुभे वदह--अपडिकूलमाणे पज्जुवासति । माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्तो पज्जुवासइ ॥३२॥ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आया। आकर पाँच प्रकार के अभिगम ( धर्म-सभा के औपचारिक नियम ) के अनुपालनपूर्वक राजा कूणिक श्रमण भगवान महावीर के सम्मुख गया । वे पाँच अभिगम इस प्रकार हैं : (१) सचित्त-सजीव पदार्थों का व्युत्सर्जन-अलग करना, अर्थात् सचित्त द्रव्यों को छोड़ना। (२) अचित्त-अजीव वस्तुओं का अव्युत्सर्जन--अलग न करना, उन्हें नहीं छोड़ना। (३). एक शाटिकअखण्ड अनसिले वस्त्र का उत्तरासंग--उत्तरीय वस्त्र की तरह या उत्तरश्रेष्ठ, आसंग-लगाव, अर्थात उस वस्त्र को कन्धे पर डाल कर धारण करना। (४) धर्म नायक के दृष्टिगोचर होते ही अंजलिप्रग्रहण-अंजलि बाँधे हाथ जोड़ना। (५) मन का एकत्व भाव करना, मन को एकाग्र करना । फिर श्रमण भगवान् महावीर को आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की। तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करने लगा। वह पर्युपासना इस प्रकार हैंकायिक, वाचिक और मानसिक । कायिक पर्युपासना के रूप में हाथों और पैरों को संकुचित किये हुए, सुनने की इच्छा करते हुए, नमन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर की ओर मुंह किये हुए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए स्थित रहा। वाचिक पर्युपासना के रूप में जो-जो भगवान् महावीर बोलते थे उसके लिये “यह ऐसा ही है, भन्ते-भगवन् ! यही तथ्य है, हे भगवन् ! यही सत्य है, स्वामिन् ! यही सन्देहरहित है, प्रभो ! यही इच्छित है, भन्ते ! यही प्रतीच्छित-स्वीकृत है, भन्ते ! यही इच्छितवाञ्छित प्रतीच्छित है, प्रभो ! जैसा कि आप यह कह रहे हैं।"-इस
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy