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________________ 133 उववाइय सुत्तं सू० २७ अप्पे इआ सव्वओ समंता मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पव्वइस्लामो पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामा अध्पेगइआ जिण भत्तिरागेण अप्पेगइआ जीयमेअं । उनमें से कई एक जनो ने अपने सब प्रकार के सांसारिक सम्बन्धों का परिवर्जन- विच्छेद कर, मुण्डित होकर प्रव्रजित होकर अगार धर्म - गृहस्थ धर्म से निकल कर ( आगे बढ़कर ) अनगार धर्म - श्रमण धर्म स्वीकार करेंगे 1. अनेक इस भाव से या यह चिन्तन कर कि पाँच अणुव्रत -- (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण, ( २ ) स्थूल मृषावाद विरमण, (३) स्थूल अदत्तादान विरमण, ( ४ ) स्वदार संतोष परदार विवर्जन रूप मैथुन विरमण, (५) स्थूल परिग्रह परिमाण, और सात शिक्षाव्रत(१) दिशा परिमाण, (२) उपभोग - परिभोग परिमाण, (३) अनर्थदण्ड विरमण, (४) सामायिक, (५) देशावकाशिक, (६) पोषधोपवास, (७) अतिथि संविभाग, यों बारह व्रत युक्त श्रावक धर्म स्वीकार करेंगे । कई एक जन भक्ति - अनुराग के कारण, कई एक जन यह चिन्तन कर कि यह अपनी वंश-परम्परा का व्यवहार है कि 'दर्शन करने को जाना है' प्रभु महावीर के सान्निध्य में आने हेतु उद्यत हुए । Some desired to use the occasion to cut off all worldly relations and join the order as monks by permanently renouncing their homes. Some wanted to court the five lesser vows and seven educative vows prescribed for the householders. Some were attracted by devotion, and some because it was a family tradition. त्ति कट्टु पहाया कयबलिकम्मा कयकोऊयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठमालकडा आविद्ध-मणिसुवण्णा कप्पियहारऽद्धहार-तिसरय पालंब- पलंबमाणक डिसुत्तय- सुकय सोहाभरणा पवरवत्य परिहिया चंदणोलित्तगायसरीरा । -
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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