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उववाइय सुत्तं सू० २१..
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को नीचा किये अर्थात् एक विशेष आसन में अवस्थित होकर धान रूप कोष्ठ — कोठे में प्रविष्ट थे अर्थात् वे अपनी भावना और धारणा के अनुरूप विभिन्न दैहिक अवस्थाओं में स्थित हो ध्यान साधना में संलग्न रहते थे । इस प्रकार वे अनगार - श्रमण संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित - अनुप्राणित करते हुए विचरण करते थे ।
In that period, at that time, Sramaņa Bhagavan Mahāvīra had many monks in his order who were highly illustrious (Bhagarata. Some were the masters of Acara S ́uta, till Virāka Suta (ie, masters of 11 Angas, from Acärcnga till Viāva). Some read them, some resolved doubts, some repeated them, some ruminated over them, some gave four types of spiritual discourses, viz., attracting people from attachment to fundamentals, reverting them from a weak track, creating in them a desire for liberation and making them indifferent to mundane life. Some lived with their thighs up and head bent low, sheltered in the cell of meditation, enriching their soul by restraint and penance.
संसार भउव्विग्गा भीआ दुक्ख पक्खुब्भिअ-पउर-सलिलं ।
परिअ वहु-बंध-महल्ल - विउल- कल्लोल- कलूण विलविअ लोभ कलकलंबोलबहुलं ।
जम्मण-जर-मरण-करण- गंभीरसंजोग-वियोग-विचो- चिंता-पसंग
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वे अनगार - श्रमण संसार के भय से उद्विग्न - डरे हुए थे, आवागमन रूप चतुर्गतिमय संसार-चक्र को कैसे पार कर पाएँ इस चिन्ता में व्यस्त थे । यह संसार एक सागर है, जन्म, जरा, वृद्धावस्था और मृत्यु के द्वारा उत्पन्न हुए घोर दुःख रूप छलछलाते अपार जल से यह ( समुद्र ) भरा हुआ है । उस दुःख रूप जल में संयोग-मिलन, वियोग-विरह के रूप में लहरें उत्पन्न हो रही हैं, वे लहरें चिन्तापूर्ण प्रसंगों से दूर-दूर तक फैलती जा रही है । वध