________________
108
Uvavaiya Suttam sa. 21 अनगारों की सक्रियता
Activities of the Monks
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगईआ आयारधरा जाव...विवागसुअधरा । तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छिं गुम्मागम्मिं फड्डाफडि अप्पेगइआ वायंति । अप्पेगइआ पडिपुच्छंति । अप्पेगइआ परियद॒ति । अप्पेगइआ अणुप्पेहंति । अप्पेगइआ अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेअणीओ णिवेअणीओ चउविहाओ कहाओ कहति । अगइया उड्ढं जाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।
उस काल ( वर्तमान अवसर्पिणी ) उस समय ( जब प्रभ महावीर चम्पा नामक नगरी में पधारे तब ) श्रमण भगवान् महावीर के साथ बहुत से अनगार-श्रमण भगवन्त थे। उनमें , कई एक आचार श्रुत के धारक, यावत् ( सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासक दशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण तथा ) विपाक श्रुत के धारक थे अर्थात् आचारांग सूत्र से लेकर विपांक श्रुत तक ग्यारह अंगों के ज्ञाता--अध्येता थे। वे वहीं-उसी बगीचे में भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक-एक समूह के रूप में, समूह के एक-एक विभाग के रूप में, तथा अलग अलग रूप में विभक्त होकर बैठ जाते थे, इक्के-दुक्के भी बैठ जाते थे। उनमें कई एक श्रमण आगमों की वाचना देते थे-आगम-साहित्य का अध्ययन करवाते थे, कई प्रश्नोत्तर द्वारा शंका समाधान करते थे, कई अधीत-पाठ की बार-बार आवृत्ति करते थे, कई चिन्तन-मनन करते थे। उनमें कई एक श्रमण आक्षेपणी-मोह-माया से हट कर समभाव की ओर आकृष्ट अथवा उन्मुख करने वाली, विक्षेपणी-कुमार्ग से विमुख करने वाली, संवेगनी-मोक्ष सुख की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली, निवेदनी- संसार से
औदासीन्य उत्पन्न करने वाली-यों चार प्रकार की ( धर्म ) कथाएँ कहते थे। उनमें कई एक श्रमण अपने दोनों घुटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक