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________________ उववाइय सुत्तं सू० २० 101 शुक्ल ध्यान चार भेदों से युक्त चार समावतार वाला कहा गया है। जो इस प्रकार : ( १ ) पृथक्त्व वितर्क सविचारी - वितर्क - शब्द का अर्थ है श्रुतावलम्बी विकल्प । पूर्ववर श्रमण विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य - विशेष का आलम्बन लेकर ध्यान करता है, किन्तु उस द्रव्य के किसी एक पर्याय - क्षण-क्षणवर्ती अवस्था विशेष पर स्थिर नहीं रहता है, उसके विभिन्न परिणामों पर संचरण करता है अर्थात् शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर, और मन, वाणी एवं देह में एक-दूसरी की पर संक्रमण करता है, भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से चिन्तन करता है, ऐसा करना पृथक्त्व वितर्क सविचार शक्ल ध्यान है, (२) एकत्व वितर्क अविचार - पूर्ववर विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक परिणाम पर चित्तको स्थिर करता है। वह शब्द, अर्थ, मन, वाणी तथा देह पर संक्रमण नहीं करता है, वैसा ध्यान एकत्व वितर्क अविचार की संज्ञा से अभिहित होता है । विशेष ज्ञातव्य यह है कि प्रथम में पृथक्त्व है, अतः वह सविचार है. द्वितीय में एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है । प्रथम में वैचारिक संक्रमण है और द्वितीय में वैचारिक संक्रमण नहीं है, (३) सूक्ष्मत्रिया अप्रतिपाति - जब केवली आयु के अन्त समय में योग-निरोध का क्रम प्रारम्भ करते हैं, तब वे मात्र सूक्ष्मकाय योग का अवलम्बन किये होते हैं । उनके और सभी योग निरूद्ध हो जाते हैं । उनमें श्वास-प्रश्वांस जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशिष्ट रह जाती है । वहाँ ध्यान से च्युत होने की किञ्चित् मात्र भी कोई संभावना नहीं रहती है। उस अवस्थागत एकाग्र चिन्तन सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान है । शुक्ल ध्यान का यह तृतीय भेद तेरहवें गुणस्थान में होता है, (४) समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति- इस ध्यान में सभी योगों और क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाता है । आत्म-प्रदेशों में सभी प्रकार का परिस्पन्दन - प्रकम्पन निरुद्ध हो जाता है । अत्यल्प पांच ह्रस्व स्वरों को उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतना ही इस ध्यान का समय है । यह ध्यान अयोगी केवली नामक चौदहवें गुणस्थान में होता है. अयोगी केवली अन्तिम गुणस्थान है। यह ध्यान मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है । • : Pure meditation has four types, it has four varieties, viz., to meditate on the diversity in an object, such as genesis, etc. (Prthaktva-vitarka-savicānī), to meditate cnile unity in an cbject
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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