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Uvavaiya Suttam su. 20
- धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ। तं जहा - अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्ताणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा ।
धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-भावनाएं अथवा विचार-विकास की अभ्यास प्रगालिकाएँ कही गई हैं : (१) अनित्यानुप्रेक्षा-भौतिक सुख, वैभव, शरीर, जीवन, परिवार आदि सभी ऐहिक वस्तुएँ अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं, यों बार-बार चिन्तन करना, (२) अशरणानुप्रेक्षा-जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, कष्ट आदि की दुर्धर विभीषिका में जिनेश्वर देव के वचन के अतिरिक्त समूचे जगत् में और कोई शरण नहीं है. ऐसे विचारों का अभ्यास करना, (३) एकत्वान प्रेक्षा- मृत्य, पीड़ा, वेदना, शुभाशुभ कर्म का फल, इत्यादि सभी जीव अकेला ही पाता है, भोगता है, उत्थान, पतन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व एकमात्र अपना अकेले का है। इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तन करना, आत्मोन्मुखता पाने हेतु विचारों का अभ्यास करना, (४) संसारानुप्रेक्षासंसार में जीव कभी माता, कभी पिता, कभी भाई, कभी बहन, कभी पति, कभी पत्नी होता है इत्यादि अनेक रूपों में संसरण करता है, इस प्रकार वैविध्यपूर्ण सांसारिक स्वरूप का, सांसारिक सम्बन्धों का बार-बार चिन्तन करना, इस प्रकार की वैचारिक प्रवृत्ति जगाना, उसे गतिशील करना, उसे बल देना।
Four types of thinking are helpful for the practice of meditation with a thought of dharma viz., to think that objects and relations in mundane life are transitory, to think that worldly life really gives no succour which can be had only in the words of the Jinas, to think that one is all alone at all times and in all situations, and to think that the soul enters into diverse relations with other souls at different periods of time.
___ सुक्कज्झाणे चउन्विहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते । तं जहा - पुहुत्तवियक्के सविआरी एगतविय अविआरो सुहुमकिरिए अप्पडिवाई समुच्छिन्न-किरिए अणिअट्टी।