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Uvavaiya Suttam Su. 20
(ekatva-vitarka-avicārī), to meditate on the semi-restrained activity of the body before entering into liberation when all other activities are withheld (sūksmakriyā-apratipāti), and to meditate on the rock-like posture when all the three activities are wholly stopped and from where there is no come back (samucchinna-kriyā-anivrtti).
सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता । तं जहा विवेगे विसग्गे अव्वहे असम्मोहे
शुक्ल ध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं : ( १ ) विवेक - शरीर से आत्मा की भिन्नता, आत्मा से सभी सांयोगिक पदार्थों का पृथक्करण, आत्मा एवं अनात्मा के पार्थक्य की प्रतीति, ( २ ) व्युत्सर्ग - निःसंग भाव से देह एवं उपकरणों का विशेष से उत्सर्ग --- त्याग । अर्थात् अपने अधिकारवर्ती भौतिक वस्तुओं से ममता का त्याग करना, (३) अव्यथा - - देव, पिशाच आदि के द्वारा दिये गये उपसर्ग से विचलित नहीं होना, व्यथा तथा कष्ट आने पर भी आत्मस्थ रहना, (४) असंमोह -- देवादि कृत मायां - जाल में तथा सूक्ष्म भौतिक विषयों संमढ़ या विभ्रान्त नहीं होना । विशेष ज्ञातव्य यह है कि ध्यान-साधना निरत पुरुष स्थूल रूप से भौतिक पदार्थों का त्याग किये हुए होता ही है । ध्यान के समय जब कभी इन्द्रिय-विषय सम्बन्धी उत्तेजनात्मक भाव उठते हैं, तो उनसे भी ध्यान-साधक विचलित एवं विभ्रान्त नहीं होता ।
Pure meditation has four expressions, viz., viveka or separation with the help of intellect of the body from the soul and vice-versa; vyutsarga or renunciation of everything except the soul; avyatha or not to allow the soul to be influenced by trouble created by the gods and demi-gods; and asammoha or not to be misguided by delusion of any kind.
सुक्क स णं भाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता । तं जहा खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे ।