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Uvavāiya Suttam Su. 20
विचय- आप्त पुरुष का वचन आज्ञा कहा जाता है । जो राग-द्वेष से मुक्त है, सर्वज्ञ है, वह आप्त पुरुष है । सर्वज्ञ देव की आज्ञा, जहाँ विचय - मनन, चिन्तन, निदिध्यासन आदि का विषय है वह एकाग्र चिन्तन आज्ञा विचय है । ( २ ) अपाय विचय - अपाय शब्द का अर्थ दुःख, अनर्थ है । उसके प्रमुख हेतु - राग, द्वेष, विषय और कषाय हैं, जिनसे कर्म-पुद्गल का आर्जन होता है । अर्थात् कर्म उपचित होते हैं । राग-द्वेष, कषाय आदि का अपचय, कर्म-सम्बन्ध का विच्छेद, आत्म-समाधि की संप्राप्ति, सभी अपायों का विनाश इत्यादि विषय इसकी चिन्तन धारा के अन्तर्गत आते हैं । (३) विपाक विचय- विपाक शब्द का अर्थ फल है । कर्मों के विपाक पर इस ध्यानं की चिन्तनधारा आधारित है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय आदि आठ कर्मों से जनित विपाक ( फल ) को संसारी जीव किस प्रकार भोगता है । वह किन-किन स्थितियों में से गुजरता चला जाता है, ये इस ध्यान में चिन्तन के मुख्य विषय हैं । ( ४ ) संस्थान विचय – लोक, द्वीप, समुद्र आदि पदार्थों की आकार का एकाग्र चिन्तन | विशेष ज्ञातव्य यह है कि आज्ञा के दो भेद हैं: (१) स्वरूप ज्ञापनी आज्ञा, (२) आदेश आज्ञा । तीर्थंकर भगवान् के द्वारा वस्तु-स्वरूप का जो कथन हुआ है, उसे स्वरूप ज्ञापनी आज्ञा कहते हैं और आचरण से सम्बन्धित वचनों को आदेश कहा जाता है ।
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Meditation with a thought of dharma has four types; it has four varieties, viz., to know through meditation the order/prescription of the Jinas about conduct, to know the evils arising from attachment and greed, to know the fruit of karma and to know the details of the universe.
धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता । तं जहाआणारुई णिसग्गरुई उवएसरुई सुत्तरुई ।
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धर्मं ध्यान का लक्षण चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है : (१) आज्ञा रुचि - वीतराग भगवान् की आज्ञा में अभिरुचि होना, श्रद्धा होना, (२) निसर्ग रुचि - स्वभावतः धर्म में अभिरुचि होना,