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________________ अन्तर्ध्वनि जैनविद्या की विविध विधाओं में जैनन्याय का एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि इसकी अप्रतिम चिन्तन प्रणाली और विशाल साहित्य ने सम्पूर्ण भारतीय मनीषा को न केवल प्रभावित किया है, अपितु गौरवान्वित भी किया है। किन्तु भारतीय दर्शनों के इतिहास विषयक ग्रन्थों में जैनदर्शन एवं जैनन्याय को यथार्थरूप से प्रस्तुत नहीं किया गया है, जिससे आज भी इस विषय में अनेक भ्रम फैले हुए हैं। भारतीय दर्शनों का विभाजन करते समय जैनदर्शन को नास्तिक दर्शन की कोटि में रखा जाता है, जबकि तथ्य यह है कि जैनदर्शन आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, स्वर्गनरक आदि को स्वीकार करता है। अतः यह विशुद्ध रूप से आस्तिक दर्शन है। ऐसी स्थिति में हमारा यह नैतिक दायित्व है कि हम जैनदर्शन एवं जैनन्याय के सन्दर्भ में फैली हुई मिथ्या धारणाओं का निराकरण करें। साथ ही प्राचीन जैनाचार्यों द्वारा सृजित जैनदर्शन एवं न्यायविद्या के विशाल तथा महत्त्वपूर्ण साहित्य को सरल, सुबोध और आधुनिक शैली में प्रस्तुत करें। इससे उन लोगों की इस विद्या के प्रति रुचि जाग्रत होगी, जो इसे कठिन जानकर इसके अध्ययन एवं अध्यापन से दूर रहते हैं। _ प्रस्तुत प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन नामक कृति इन महान् उद्देश्यों की पूर्ति में एक सार्थक और सराहनीय कदम है, जिसे साकार किया है जैन-बौद्ध दर्शन के साथ ही विविध भारतीय दर्शनों के अधिकारी विद्वान् प्रो० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य ने। ___जैन न्यायविद्या की एक विशाल परम्परा है, जिसके प्रतिष्ठापकों में .. 'आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलङ्कदेव का नाम अग्रगण्य है। इन्हीं श्रेष्ठ तार्किकों की परम्परा में आचार्य प्रभाचन्द्र का नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने आचार्य अकलङ्कदेव कृत लघीयस्त्रय की विस्तृत व्याख्या के रूप में न्यायकुमुदचन्द्र जैसी महनीय टीका और आचार्य माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुखसूत्र नामक लघु किन्तु महत्त्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ पर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक बारह हजार श्लोक प्रमाण प्रमेयों से भरपूर विस्तृत टीका लिखकर बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की है। आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित ये दोनों ग्रन्थ टीकाग्रन्थ अवश्य हैं, किन्तु विषय की
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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