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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
उत्थानिका प्रमेयकमलमार्तण्ड आचार्य प्रभाचन्द्र की जैनन्याय और जैनदर्शनविषयक एक महत्त्वपूर्ण रचना है । जिस प्रकार सूर्योदय होने पर कमलों का विकास हो जाता है उसी प्रकार प्रमेयरूपी कमलों को विकसित ( प्रकाशित ) करने के लिए आचार्य प्रभाचन्द्र की यह कृति मार्तण्ड ( सूर्य ) के समान है । इसकी रचना का आधार है आचार्य माणिक्यनन्दि का परीक्षामुखसूत्र । आचार्य माणिक्यनन्दि ने जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव के वचनरूपी समुद्र का मंथन करके न्यायविद्यारूपी अमृत को निकाला और तदनुसार न्यायशास्त्र में मन्दबुद्धिवाले जिज्ञासु जनों के प्रवेश के लिए परीक्षामुखसूत्र की रचना की ।
परीक्षामुख एक सूत्रग्रन्थ है, किन्तु इसके प्रारंभ में तथा अन्त में आचार्य माणिक्यनन्दि ने एक एक श्लोक भी लिखा है । प्रारंभिक श्लोक इस प्रकार है
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः॥ आचार्य प्रभाचन्द्र ने सर्वप्रथम श्री वर्धमान जिनको नमस्कार करके उक्त श्लोक की व्याख्या की है । उक्त श्लोक का सारांश यह है कि प्रमाण से अर्थ की संसिद्धि होती है । संसिद्धि का अर्थ है समीचीन सिद्धि । अर्थात् अर्थ का सम्यग्ज्ञान और उसकी प्राप्ति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अर्थ दो प्रकार का होता है-हेय और उपादेय । अत: अर्थ का सम्यग्ज्ञान होने पर हम हेयरूप अर्थ का त्याग कर देते हैं और उपादेयरूप अर्थ का ग्रहण करते हैं । यही अर्थ की संसिद्धि है और यह प्रमाण से होती है । इसके विपरीत प्रमाणाभास से विपर्यय होता है । अर्थात् अर्थ की संसिद्धि नहीं
होती है । उससे तो अर्थ का ज्ञान और उसकी प्राप्ति कभी भी संभव नहीं - है ।इसीलिए आचार्य माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में प्रमाण और प्रमाणाभास