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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
पद में रत' कहा है । इससे तो यही प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्रमाणिक्यनन्दि के साक्षात् शिष्य थे । किन्तु श्री पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने माणिक्यनन्दि को प्रभाचन्द्र का न तो साक्षात् गुरु बतलाया है। और न परम्परागुरु । उन्होंने केवल इतना ही लिखा है कि प्रभाचन्द्र पद्मनन्दि सैदान्त के शिष्य थे । इसीलिए पं०. महेन्द्रकुमार जी ने माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र के समय में कम से कम एक शताब्दी का अन्तराल माना है । यह भी सम्भव प्रतीत नहीं होता है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के अन्त में जो प्रशस्ति वाक्य हैं वे स्वयं प्रभाचन्द्र के न होकर अन्य किसी दूसरे विद्वान् के हों । अतः यह सब प्रकरण विद्वानों के द्वारा अवश्य ही विचारणीय है ।
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अन्त में आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा विरचित निम्नलिखित श्लोक का स्मरण करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन की प्रस्तावना को विराम देता हूँ
सिद्धेर्धाम महारिमोह - हननं कीर्तेः परं मन्दिरम्, मिथ्यात्वप्रतिपक्ष- मक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम् । सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धं प्रमालक्षणम्, सन्तश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्धमानं जिनम् ॥
ऋषभ जयन्ती
चैत्रकृष्णा नवमी
२२ मार्च १९९८
श्रद्धावनत
उदयचन्द्र जैन
सर्वदर्शनाचार्य