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________________ २७६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन इतनी विशेषता है कि यहाँ प्रमाण और तर्क के अतिरिक्त छल, जाति और निग्रहस्थान के द्वारा भी पक्ष की सिद्धि की जाती है और प्रतिपक्ष में दूषण दिया जाता है । ९५. वितण्डा - वितण्डा में प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं की जाती है, अपितु वादी ने जो अपना पक्ष प्रस्तुत किया है, प्रतिवादी केवल उसी का खण्डन करता है । वह वादी के पक्ष के विरुद्ध प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं करता है । ९६. छल-अर्थ में विकल्प उत्पन्न करके किसी के वचनों का व्याघात करना छल कहलाता है । जैसे किसी ने कहा - 'नवकम्बलोऽयम्' । ऐसा कहने वाले का तात्पर्य यह है कि इसके पास नूतन कम्बल है । लेकिन सुनने वाला दूसरा व्यक्ति छल द्वारा कहता है कि इसके पास नौ कम्बल कैसे हो सकते हैं । यही छल है । 1 ९७. जाति - साधर्म्य दिखलाकर किसी वस्तु की सिद्धि करने पर उसी साधर्म्य द्वारा उसका निषेध करना अथवा वैधर्म्य द्वारा किसी वस्तु की सिद्धि करने पर उसी वैधर्म्य द्वारा उसका निषेध करना जाति कहलाती है । यथार्थ में असत् उत्तर का नाम जाति है । ९८. निग्रहस्थान - जिसके द्वारा किसी की पराजय हो उसे निग्रहस्थान कहते हैं । यह दो प्रकार से होता है- किसी विषय में विप्रतिपत्ति ( विवाद ) होने से और किसी विषय की अप्रतिपत्ति (, ज्ञान का अभाव ) ९९. नय - जिसने प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया है और जो वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है ऐसे ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं । १००. नयाभास - जो किसी एक धर्म का ही अस्तित्व स्वीकार करता है और शेष समस्त धर्मों का निराकरण करता है वह नयाभास है । १०१. अर्थनय – नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - ये चार नय अर्थप्रधान होने के कारण अर्थनय कहलाते हैं । १०२. शब्दनय - शब्द, समभिरूढ और एवंभूत - ये तीन नय शब्दप्रधान होने के कारण शब्दन कहलाते हैं । १०३. द्रव्यार्थिक नय - नैगम, संग्रह और व्यवहार - ये तीन नंय द्रव्य को विषय करने के कारण द्रव्यार्थिक नय कहलाते हैं ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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