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परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द
होता है वह संशय कहलाता है । यहाँ संशय का कारण है-स्थाणु और पुरुष में समान धर्म की उपलब्धि और असमान धर्म की अनुपलब्धि । - ८६. विपर्यय-शुक्तिका में जो रजत का ज्ञान होता है वह विपर्यय ज्ञान कहलाता है । यहाँ शुक्तिका और रजत में सादृश्य के कारण विपर्यय ज्ञान हो जाता है । ८७. अनध्यवसाय-अध्यवसाय निश्चय को कहते हैं और अनिश्चय का नाम अनध्यवसाय है । मार्ग में जाते हुए पुरुष को तृण का स्पर्श होने पर 'यह क्या है' ऐसा जो अनिश्चयात्मक ज्ञान होता है वह अनध्यवसाय कहलाता है। ८८. अनेकान्त-अनेकान्त शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है । एक से अधिक को अनेक कहते हैं और 'अन्त' का अर्थ है धर्म । प्रत्येक वस्तु में नित्यत्व-अनित्यत्व, सत्त्व-असत्त्व आदि अनेक धर्मयुगल पाये जाते हैं । इसी का नाम अनेकान्त है । ८९. स्याद्वाद-अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादन करने की शैली का नाम स्याद्वाद है । स्याद्वाद के बिना अनेक धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन संभव नहीं है । अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है । स्यात्' का अर्थ है कथंचित् और 'वाद' का अर्थ है कथन । ९०. वीतरागकथा-राग-द्वेषरहित गुरु-शिष्यों में अथवा विशिष्ट विद्वानों में तत्त्वनिर्णय के लिए जो चर्चा होती है वह वीतराग कथा कहलाती है । ९१. विजिगीषुकथा-वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष की सिद्धि के लिए जय-पराजय पर्यन्त जो वचन-व्यापार होता है वह विजिगीषुकथा कहलाती है । इसे वाद भी कहते हैं । ९२. चतुरंगवाद-वाद के चार अंग होते हैं-वादी, प्रतिवादी, प्राधिक
और सभापति । इसलिए इसे चतुरंगवाद कहते हैं । ९३. वाद-प्रमाण और तर्क से जहाँ स्वपक्ष का साधन और परपक्ष में दूषण दिया जाता है, जो सिद्धान्त से अविरोधी होता है और जो पाँच अवयवों सहित होता है, ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष का स्वीकार करना वाद कहलाता है। ९४. जल्प-जल्प का लक्षण वाद के लक्षण के समान ही है । जल्प में