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परिशिष्ट - १ : कुछ विचारणीय बिन्दु
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१०. सूत्र संख्या में उलटफेर
वर्तमान में परीक्षामुख के सूत्रों का जो पाठ प्रचलित है उसमें सूत्रों की कुल संख्या २१२ है । प्रथम परिच्छेद में १३, द्वितीय में १२, तृतीय में १०, चतुर्थ में ९, पंचम में ३ और षष्ठ परिच्छेद में ७४ सूत्र हैं । किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड में सूत्र संख्या २१३ है । परीक्षामुख में दूसरे परिच्छेद में जो १२ सूत्र हैं उनमें बारहवाँ सूत्र इस प्रकार है
सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात् ।
प्रमेयकमलमार्तण्ड में यह सूत्र गायब है, फिर भी सूत्रों की संख्या १२ ही बनी रही । इसका कारण यह है कि
अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥ ८ ॥
इस आठवें सूत्र को तोड़कर इसके दो सूत्र बना दिये हैं । 'अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकम् ' यह आठवां सूत्र है और 'प्रदीपवत्' यह नौवां सूत्र है । परीक्षामुख में चतुर्थ परिच्छेद में कुल ९ सूत्र हैं । किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड में इनकी संख्या १० बना दी गई है । यहाँ भी - सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ॥ ३ ॥
इस तीसरे सूत्र को तोड़कर इसके स्थान में दो सूत्र बना दिये गये हैं । 'सामान्यं द्वेधा' यह तीसरा सूत्र है' और 'तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ' यह चौथा सूत्र है । परीक्षामुख में पंचम परिच्छेद में ३ सूत्र हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड में इनको चतुर्थ परिच्छेद में मिला दिया है । इस प्रकार चतुर्थ परिच्छेद के सूत्रों की संख्या ९ के स्थान में १३ हो गई है । परीक्षामुख में छठवें परिच्छेद में ७४ सूत्र हैं । इनमें से प्रमेयकमलमार्तण्ड में ७३ सूत्रों का पंचम परिच्छेद बनाया गया है और केवल १ सूत्र का छठवां परिच्छेद बनाया गया है । इस परिवर्तन का कारण समझ में नहीं आया । यदि परीक्षामुख के अनुसार ही प्रमेयकमलमार्तण्ड में परिच्छेदों की सूत्र संख्या रहती तो क्या हानि होती ?
यहाँ एक बात और विचारणीय है । तृतीय परिच्छेद में सूत्रों की संख्या १०१ है । यहाँ सूत्रकार ने प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप और उसके भेद एक ही सूत्र संख्या ५ में बतलाये हैं । किन्तु परीक्षामुख के प्रचलित पाठ में प्रत्यभिज्ञान के ५ भेदों के ५ उदाहरण ५ सूत्रों में मिलते हैं । मेरे विचार से प्रत्यभिज्ञान के ५ भेदों के ५ उदाहरण भी एक ही सूत्र संख्या ६ में होना
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