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२५६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . नाम और वैसी ही लाखों योजन की गिनती । इनका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि उस समय भूगोल और खगोल की जो परम्परा श्रुतानुश्रुत परिपाटी से जैनाचार्यों को मिली उसे उन्होंने लिपिबद्ध कर दिया ।"
इतना जान लेने के बाद यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि जैनशास्त्रों में वर्णित मेरु पर्वत कौन है और कहाँ है ? ९. आगमाभास का उदाहरण
षष्ठ परिच्छेद के सूत्र संख्या ५२ में आगमाभास का लौकिक उदाहरण देने के बाद सूत्र संख्या ५३ में आगमाभास का शास्त्रीय उदाहरण दिया गया है । वह सूत्र इस प्रकार है
अङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति च ॥६/५३॥ इसका अर्थ यह है कि यदि कोई कहता है कि अंगुली के अग्रभाग पर सैकड़ों हाथियों का समूह पाया जाता है तो यह शास्त्रीय आगमाभास का उदाहरण है । यहाँ विचारणीय बात यह है कि उक्त प्रकार की बात कौन कहता है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में केवल इतना लिखा है___'मोहाक्रान्तस्तु सांख्यादिः।' अर्थात् उक्त कथनं मोहग्रस्त सांख्य आदि का है । किन्तु प्रमेयरत्नममाला में इससे कुछ अधिक लिखा है जो इस प्रकार है
अत्रापि सांख्यः स्वदुरागमजनितवासनाहितचेता दृष्टेष्टविरुद्धं सर्वं सर्वत्र विद्यते इति मन्यमानस्तथोपदिशति ।
अर्थात् सांख्य अपने मिथ्या आगम जनित वासना से आक्रान्त होकर प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध कथन करता है कि सभी वस्तुएँ सर्वत्र विद्यमान रहती हैं।
यहाँ द्रष्टव्य यह है कि क्या सांख्य ऐसा मानता है ? मेरी जानकारी के अनुसार सांख्यदर्शन ने तथा अन्य किसी भी दर्शन ने ऐसा नहीं माना है कि 'सर्वं सर्वत्र विद्यते' । अतः उक्त सूत्र का अर्थ सामान्यरूप से ऐसा करना चाहिए कि यदि कोई ऐसा कहता है कि अङ्गली के अग्रभाग पर सैकड़ों हाथियों का समूह पाया जाता है तो उसका उक्त कथन आगमाभास है । यहाँ सांख्य का नाम जोड़ना संगत नहीं लगता है । क्योंकि सांख्य की ऐसी मान्यता मुझे अभी तक उनके किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिली है ।