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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
किये जाने वाले पत्रों का स्वरूप कैसा होना चाहिए इस बात को ऊपर के . श्लोक में बतलाया गया है । बाद के चार अंग माने गये हैं- वादी, प्रतिवादी, सभासद या प्राश्निक तथा सभापति । इसी प्रकार पत्र के भी वही चार अंग होते हैं जो वाद के हैं । लिखित शास्त्रार्थ किसी विशेषज्ञ सभापति तथा सभासदों की उपस्थिति में वादी और प्रतिवादी के बीच होता है । अन्त में सभापति उस शास्त्रार्थ का निर्णय घोषित करते हैं । पत्र के विषय में विशेष जानकारी के लिए आचार्य विद्यानन्द द्वारा लिखित 'पत्र - परीक्षा' नामक ग्रन्थ द्रष्टव्य है ।
परीक्षामुख का अन्तिम श्लोक इस प्रकार हैपरीक्षामुखमादर्शं हेयोपादेयतत्त्वयोः ।
संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद् व्यधाम् ॥ अल्पज्ञ पुरुषों को हेय और उपादेय तत्त्वों का ज्ञान कराने के लिए यह परीक्षामुख नामक ग्रन्थ आदर्श ( . दर्पण ) है । तथा मेरे जैसे बालक ने परीक्षा में दक्ष पुरुष के समान इस ग्रन्थ की रचना की है । जो अल्पज्ञ पुरुष हेय और उपादेय तत्त्व की परीक्षा करना चाहते हैं उसमें उनके प्रवेश के लिए यह ग्रन्थ मुख ( प्रवेशद्वार ) है । परीक्षामुख में आदर्श ( दर्पण ) का धर्म पाया जाता है । जिस प्रकार दर्पण शरीर का अलंकार करने वाले पुरुषों को मुख का अलंकार यदि असुन्दर है तो उसे हेयरूप से और मुख का अलंकार यदि सुन्दर हुआ है तो उसे उपादेयरूप से बतला देता है, उसी प्रकार परीक्षामुख नामक यह ग्रन्थ भी हेय और उपादेय तत्त्वों को स्पष्टरूप से बतला देता है । इसीलिए इसको आदर्श कहा गया है । इस कथन का सारांश यह है कि परीक्षामुख के अध्ययन से हेय और उपादेय तत्त्वों का बोध सरलता से हो जाता है ।
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इस श्लोक में परीक्षामुख के लेखक ने अपने लिए बाल शब्द का प्रयोग करके अपनी निरभिमानता तथा लघुता प्रकट की है । यद्यपि आचार्य माणिक्यनन्दि समस्त भारतीय दर्शनों के उच्चकोटि के विद्वान् थे तथापि उन्होंने अपने को बाल कहा है, यह महान् आश्चर्य की बात है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि आचार्य मणिक्यनन्दि कितने विनम्र तथा सरलस्वभावी थे ।
• षष्ठ परिच्छेद समाप्त •