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षष्ठ परिच्छेद : सूत्र १८-२६
२१३ जिस हेतु की सत्ता ही न हो अथवा जिसका निश्चय न हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं । असिद्ध हेत्वाभास के दो भेद हैं-स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासिद्ध । जिस हेतु का कोई स्वरूप ही न हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं और जिस हेतु के रहने में संदेह हो उसे संदिग्धासिद्ध कहते हैं ।
स्वरूपासिद्ध का उदाहरण अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥२३॥
शब्द परिणामी है, चाक्षुष होने से । यहाँ चाक्षुषत्व हेतु की सत्ता ही नहीं है । क्योंकि शब्द चाक्षुष नहीं है, वह तो श्रावण है, अर्थात् श्रवण इन्द्रिय का विषय है । शब्द को चाक्षुष कहना स्वरूप से ही असिद्ध है । अतः यह स्वरूपासिद्ध का उदाहरण है । ___यह स्वरूपासिद्ध क्यों है इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते
हैं
. . स्वरूपेणासिद्धत्वात् ॥२४॥
इस हेतु का वो स्वरूप ही असिद्ध है । चाक्षुष ज्ञान के द्वारा जो ग्राह्य होता है उसे चाक्षुष कहते हैं । शब्द तो कभी भी चाक्षुष ज्ञान का विषय नहीं होता है । वह तो श्रोत्र ज्ञान के द्वारा ग्राह्य होता है । अतः शब्द को परिणामी सिद्ध करने में चाक्षुषत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है। ..
संदिग्धासिद्ध का उदाहरण अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धि प्रत्यग्निरत्र धूमात् ॥ २५॥
कोई व्यक्ति किसी मुग्धबुद्धि ( भोलाभाला ) पुरुष से कहता है कि यहाँ अग्नि है, धूम होने से । यहाँ मुग्धबुद्धि पुरुष को धूम के अस्तित्व के विषय में निश्चय न होने के कारण उसका धूमज्ञान संदिग्ध ही रहेगा । अतः यह संदिग्धासिद्ध का उदाहरण है ।
मुग्धबुद्धि पुरुष को धूम विषयक संदेह क्यों रहता है इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं
तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते सन्देहात् ॥२६॥
उस मुग्धबुद्धि पुरुष को भूतसंघात ( धूम ) में वाष्प आदि के रूप में सन्देह हो सकता है । अर्थात् वह यह निश्चय नहीं कर पाता है कि वास्तव