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________________ तृतीय परिच्छेद: सूत्र ८३-८९ -विधिसाधक विरुद्धानुपलब्धि के भेद विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ॥ ८६॥ विधिसाधक विरुद्धानुपलब्धि के विरुद्धकार्य, विरुद्धकारण और विरुद्धस्वभाव की अनुपलब्धि के भेद से तीन भेद होते हैं । विरुद्ध कार्यानुपलब्धि का उदाहरण 1 अस्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ॥ ८७ ॥ इस प्राणी में व्याधिविशेष है, निरामयचेष्टा की अनुपलब्धि होने से । यहाँ किसी प्राणी में व्याधिविशेष की सिद्धि की गई है । व्याधिविशेष का विरुद्ध है व्याधिविशेष का अभाव और उसका कार्य है निरामयचेष्टा ( व्याधिरहित चेष्टा ) । अतः इस प्राणी में व्याधिविशेष के विरुद्ध का कार्य निरामयचेष्टा की अनुपलब्धि होने से व्याधिविशेष का अनुमान किया गया है । यह विधिसाधक विरुद्धकार्यानुपलब्धि का उदाहरण है । 4 विरुद्धकारणानुपलब्धि का उदाहरण अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥ ८८ ॥ 1 इस प्राणी में दुःख है, इष्टसंयोग का अभाव होने से । यहाँ किसी प्राणी में दुःख की सिद्धि की गई है । दुःख का विरुद्ध है सुख और उसका कारण है इष्टसंयोग । अतः इस प्राणी में दुःख के विरुद्ध सुख के कारण इष्टसंयोग की अनुपलब्धि होने से दुःख का अनुमान किया गया है । यह विधिसाधक विरुद्धकारणानुपलब्धि का उदाहरण है । १३३ विरुद्धस्वभावानुपलब्धि का उदाहरण अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तानुपलब्धेः ॥ ८९ ॥ यहाँ वस्तु अनेकान्तात्मक है, एकान्तस्वभाव की अनुपलब्धि होने से । वस्तु में अनेकान्तात्मकत्व की सिद्धि की गई है । अनेकान्त का विरुद्ध है एकान्त और उसका स्वभाव है वस्तु का एकान्तरूप होना । किन्तु वस्तु में एकान्तस्वभाव की उपलब्धि नहीं होती है । अतः यहाँ अनेकान्त के विरुद्ध एकान्त के स्वभाव की अनुपलब्धि होने से वस्तु में
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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