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________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र ६९-७५ १२९ यहाँ शीतस्पर्श नहीं हैं, उष्णता होने से । यहाँ शीतस्पर्श प्रतिषेध्य है । उसका विरुद्ध अग्नि है और अग्नि का व्याप्य है उष्णता । अतः यहाँ प्रतिषेध्य के विरुद्ध अग्नि के व्याप्य उष्णता की उपलब्धि होने से शीतस्पर्श का निषेध किया गया है । यह प्रतिषेधसाधक विरुद्धव्याप्योपलब्धि का उदाहरण है। विरुद्ध कार्य हेतु का उदाहरण नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥७३॥ यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, धूम होने से । यहाँ शीतस्पर्श प्रतिषेध्य है । उसका विरुद्ध अग्नि है और उसका कार्य धूम है । अतः यहाँ प्रतिषेध्य के विरुद्ध अग्नि के कार्य धूम की उपलब्धि होने से शीतस्पर्श का निषेध किया गया है । यह प्रतिषेधसाधक विरुद्धकार्योपलब्धि का उदाहरण है । विरुद्ध कारण हेतु का उदाहरण नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥७४॥ इस प्राणी में सुख नहीं है, हृदय में शल्य होने से । यहाँ सुख प्रतिषेध्य है । उसका विरुद्ध दुःख है और उसका कारण हृदय में शल्य है । अतः यहाँ प्रतिषेध्य के विरुद्ध दुःख के कारण हृदय में शल्य की उपलब्धि होने से इस प्राणी में सुख का निषेध किया गया है । यह प्रतिषेधसाधक विरुद्धकारणोपलब्धि का उदाहरण है । . विरुद्ध पूर्वचर हेतु का उदाहरण ... नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥ ७५॥ . ___एक मुहूर्त के अन्त में शकट नक्षत्र का उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय रेवती नक्षत्र का उदय है । यहाँ शकट का उदय प्रतिषेध्य है । उसका विरुद्ध अश्विनी नक्षत्र का उदय है और उसका पूर्वचर रेवती का उदय है । अतः यहाँ प्रतिषेध्य के विरुद्ध अश्विनी के पूर्वचर रेवती के उदय की उपलब्धि होने से एक मुहूर्त के अन्त में शकट के उदय का निषेध किया गया है । यह प्रतिषेधसाधक विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि का उदाहरण है। ..
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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