________________
आयारदसा
५६ १. यथासूत्र-आगम-सूत्रों में कहे गये प्रकार से पालन करना । २. यथाकल्प-शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार पालन करना । ३. यथातथ्य-दर्शन, ज्ञान, चारित्र की जैसे वृद्धि हो, उस प्रकार से पालन
करना। ४. यथामार्ग-जिस प्रकार से मोक्षमार्ग की विराधना न हो उस प्रकार से
पालन करना। ५. यथासम्यक्-आर्त्त-रौद्रभाव से रहित होकर धर्मध्यानपूर्वक पालन
करना। ६. काएण फासित्ता–काय से स्पर्श करते हुए पालन करना, केवल
विचारों से नहीं। ७. सोहित्ता-अतिचारों का शोधन करते हुए पालन करना । ८. तीरित्ता-नियमपूर्वक पालन करके उसके पार पहुँचना । ६. पूरित्ता–पूर्ण नियमों का पालन करना । १०. किट्टित्ता-व्रत के गुण-गान करते हुए पालन करना । ११. आणाए अणुमालित्ता-आचार्यों की आज्ञा के अनुसार पालन करना । यह पाँचवीं उपासक प्रतिमा है,।
उक्त सर्व पदों का सार यही है कि त्रियोग की शुद्धिपूर्वक अति श्रद्धा के साथ इस प्रतिमा को आगमोक्त रीति से पालन करना चाहिए। .
सूत्र २२
(६) अहावरा छट्ठा उवासग-पडिमा• · सव्व-धम्म-रुई यावि भवइ ।
जाव--से णं एगराइयं उवासग-पडिमं सम्म अणुपालित्ता भवइ । से णं असिणाणए, वियडभोई, मउलिकडे, दिया वा राओ वा बंभयारी, सचित्ताहारे से अपरिग्णाए भवइ । से णं एयारूवेण विहारेण विहरमाणे
जहण्णेणं एगाहं वा दुआहं वा तिआहं वा जाव उक्कोसेणं छम्मासं विहरेज्जा।
से तं छट्ठा उवासग-पडिमा। (६)