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सूत्र २१
(५) अहावरा पंचमा उवासग-पडिमा
सव्व धम्म- रुई यावि भवइ ।
छेदसुत्ताणि
तस्स णं बहुई सीलवय-गुणवय- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं सम्मं अणुपात्ता भवइ । से णं सामाइयं देसावगासियं अहासुत्तं अहाकप्पं अहातच्चं अहामग्गं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता, सोहित्ता, पूरिता, किट्टित्ता, आणाए अणुपालित्ता भवइ । से णं चउसि अट्ठमि उहि पुण्ण मासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्ता भवइ ।
से णं एग-राइयं उवासग पडिमं सम्मं अणुपालित्ता भवइ ।
से णं असिणाणए, वियडभोई, मउलिकडे, दिया बंभचारी, रति परिमाणकडे ।
सेणं एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा जाव उक्कोसेण पंच मासं विहरइ ।
सेतं पंचमा उवास पडिमा । ( ५ )
अब पांचवीं उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हैं
वह सर्वधर्मरुचिवाला यावत् पूर्वोक्त चारों प्रतिमाओं का यथावत् अनुपालन करता है । वह नियम से बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, माप-विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवासों का सम्यक् अनुपालन करता है । वह नियमतः सामायिक और देशावकाशिक व्रत का यथासूत्र, यथाकल्प, यथातथ्य, यथामार्ग काय से सम्यक् प्रकार स्पर्श कर, पालन कर, शोधन, कीर्तन करता हुआ जिन आज्ञा के अमुसार परिपालन करता है । वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमासी तिथियों में परिपूर्ण पौषध का पालन करता है । वह स्नान नहीं करता, वह प्रकाश -भोजी है, अर्थात् रात्रि में नहीं खाता, किन्तु दिन में ही भोजन करता है, वह मुकुलीकृत रहता है अर्थात् धोती की लांग नहीं लगाता । दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करता है और रात्रि में मैथुन सेवन का परिणाम करता है, वह इस प्रकार के आचरण से विचरता हुआ जघन्य से एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट पांच मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है । ( उसके पश्चात् वह छठी प्रतिमा को स्वीकार करता है | )
विशेषार्थ - इस प्रतिमा का जो 'यथासूत्र' आदि पदों से पालन करने का विधान किया गया है, उनका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार है-