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छेदसुत्ताणि
के शकट, रथ, यान, युग, गिल्ली, थिल्ली, शिविका, स्यन्दमानिका, शयनासान, यान, वाहन, भोजन और प्रविष्टर विधि (गृह-सम्बन्धी वस्त्र-पात्रादि) से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। अर्थात सभी प्रकार के पंचेन्द्रियों के विषय-सेवन में अति आसक्त रहता है, सभी प्रकार की सवारियों का उपभोग करता है और नानाप्रकार के गृह-सम्बन्धी वस्त्र, आभरण, भाजनादि का संग्रह करता रहता है।
वह मिथ्यादृष्टि सर्व अश्व, हस्ती, गो (गाय-बैल) महिष (भैस-पाड़ा) गवेलक (बकरा-बकरी) मेष (भेड़-मेषा) दास, दासी, और कर्मकर (नौकरचाकर आदि) पुरुष-समूह से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है । वह सर्वप्रकार के क्रय (खरीद) विक्रय (बिक्री) माषार्धमाष (मासा, आधा मासा) रूपकसंव्यवहार से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। वह सर्व हिरण्य (चांदी) सुवर्ण, धन-धान्य, मणि-मौक्तिक, शंख-शिलप्रवाल (मूगा) से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। वह सर्वप्रकार के कूटतुला, कूटमान (हीनाधिक तोलनाप) से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है । वह सर्व आरम्भ-समारम्भ से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। वह सर्वप्रकार के पचन-पाचन से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। वह सर्व कार्यों के करने-कराने से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। वह सर्वप्रकार के कूटने-पीटनेसे, तर्जन-ताड़नसे, वध, बन्ध और परिक्लेशसे यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है—यावत् जितने भी उक्त प्रकार के सावद्य (पाप-युक्त) अबोधिक (मिथ्यात्ववर्धक) और दूसर जीवों के प्राणों को परिताप पहुँचाने वाले कर्म किये जाते हैं, उनसे भी वह यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है । अर्थात् उक्त सभी प्रकार के पाप-कार्यों एवं आरम्भ-समारम्भों में संलग्न रहता है ।
(वह मिथ्यादृष्टि पापात्मा किस प्रकार से उक्त पाप-कार्यों के करने में लगा रहता है, इस बात को एक दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट करते हैं-) .
सूत्र
से जहानामए केइ पुरिसे
कलम-मसूर-तिल-मूग-मास-निप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदग-सेत्तीणा हरिमंथजवजवा एवमाइएहि अयते कूरे मिच्छा दंडं पउंजइ ।
एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिर - वट्टग - लावग-कपोत-कपिजल-मिय-महिस-वराह-गाह-गोह-कुम्मसरीसिवादिएहिं अयते कूरे मिच्छा दंडं पउंजइ ।