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छेदसुत्ताणि
४ प्रौषधप्रतिमा। ५ दिवा ब्रह्मचर्यप्रतिमा । ६ दिवा-रात्रि ब्रह्मचर्यप्रतिमा । ७ सचित्त-परित्यागप्रतिमा। ८ आरम्भ-परित्यागप्रतिमा ।
प्रेष्य-परित्यागप्रतिमा। १० उद्दिष्ट-भक्त परित्यागप्रतिमा। ११ श्रमणभूतप्रतिमा।
विशेषार्थ-- जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व-परिणति से परिणमता चला आ रहा है। जब तक उसे सम्यकत्वरूप बोधि प्राप्त नहीं होती है, तब तक वह सम्यग्दर्शन के प्रतिपक्ष-स्वरूप मिथ्यादर्शन से परिणत होकर जीव-अजीव, पुण्य-पाप, इहलोक-परलोक आदि में कुछ भी विश्वास नहीं करता है। इसे मिथ्यादर्शनी, नास्तिक और अक्रियावादी• आदि नामों से कहते हैं। सूत्रकार ने इस मिथ्यादृष्टि जीव का वर्णन अक्रियावादी के नाम से किया है। अक्रियावादी की प्रवृत्ति कैसी होती है, यह बात सूत्रकार आगे विस्तार से स्वयं कह
अनादि काल से सभी जीवों के मिथ्यात्व विद्यमान रहता है, अतः उसका वर्णन किया जाता है--
सूत्र ३ अकिरियावाइ-वण्णणं, तं जहा -
अकिरियावाई यावि भवइ' नाहिय-वाई, नाहिय-पण्णे, नाहिय-दिट्टी णो सम्मवाई, णो णितियवादी, ण संति परलोगवाई
पत्थि इह लोए, णत्थि पर लोए, णत्थि माया, पत्थि पिया, पत्थि अरिहंता, णत्थि चक्कवट्टी, णत्थि बलदेवा, पत्थि वासुदेवा, णत्थि गिरया, णस्थि रइया,
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अकिरियावादी यावि भवति । अकिरियावादि त्ति सम्यग्दर्शन-प्रतिपक्षभूतं मिथ्यादर्शनं वन्निजति । पच्छा सम्मंहसणं । दुव्व वा सव्वजीवाण मिच्छत्त, पच्छा केसिंचि सम्मत्त । अतो पुव्वं मिच्छत्त । (दसाचूगी)