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आयारदमा
३ यथाकाल यथोचित कार्य को करना और कराना। ४ गुरुजनों का यथायोग्य पूजा-सत्कार करना।
यह संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा है। विशेषार्थ--इस संग्रहपरिज्ञा सम्पदा को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के क्रमानुसार न कहकर द्रव्य से पूर्व क्षेत्र-सम्पदा का निरूपण करने का कारण यह है कि क्षेत्र प्रतिलेखन के पश्चात् ही पीठ-फलक आदि द्रव्यों का लाना उचित है ।
सूत्र १५
आयरिओ अंतेवासी इमाए चविहाए विणय-पडिवत्तीए विणइत्ता भवइ निरणित्तं गच्छइ, तं जहा१ आयार-विणएणं, . २ सुय-विणएणं, ३ विक्खेवणा-विणएणं, ४ दोस-निग्घायण-विणएणं ।
आचार्य अपने शिष्यों को यह चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति सिखाकर के अपने ऋण से उऋण हो जाता है । जैसे ----आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घात विनय ।
सूत्र १६
प्र० --से कि तं आयार-विणए ? उ०-आयार-विणए चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा१ संयम-सामायारी यावि भवइ, २ तव-सामायारी यावि भवइ, ३ गण-सामायारी यावि भवइ, ४. एकल्ल-विहार-सामायारी यावि भवइ । से तं आयार-विणए । (१) प्रश्न- भगवन् ! वह आचारविनय क्या है ? उत्तर - आचारविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे--- १ संयमसमाचारी-संयम के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराके आचारण कराना। २ तपःसमाचारी-तपके भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराके आचरण कराना। ३ गणसमाचारी -- साधु-संघ की सारण-वारणादि से रक्षा करना, रोगी
- यथोचित व्यवस्था करना, अन्य गण के साथ यथायोग्य व्यवहार करना और कराना ।