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छेवसुत्ताणि रालिक-परिभाषी पांचवां असमाधिस्थान है। जो जाति श्रुत एवं दीक्षा पर्याय से बड़े होते हैं, ऐसे आचार्य, उपाध्याय और स्थविरों को रात्निक कहते हैं । अपनी जाति, कुल आदि को बड़ा बताकर अहंकार से उनकी अवहेलना करना, पराभव करना, उन्हें मन्दबुद्धि कहना भी असमाधिस्थान है ।
- इसीप्रकार स्थविर के घात का विचार करना, उपलक्षण से अन्य किसी भी साधु के घात का विचार करना, प्राणियों के घात . का विचार करना, अयतना से प्रवर्तन करते हए उनकी रक्षा का ध्यान न रखना; संज्वलन-पूनः पुनः क्रोध करना, क्रोधन--एक वार वैरभाव हो जाने पर उसे सदा स्मरण रखना, क्षमा प्रदान नहीं करना, पीठ पीछे चुगली खाना, अवर्णवाद करना, बार-बार निश्चयात्मक भाषा बोलना, संदिग्ध बात को भी “यह ऐसी ही है" ऐसा कहना, संघ में नये-नये झगड़े उत्पन्न करना, पुराने और क्षमापन किये गये कलहों को उभारना, अकाल में स्वाध्याय करना, सचित्तरज से लिप्त हाथ-पैर वाले व्यक्ति के हाथ से भिक्षा लेना, अपने हाथ पैरों को सचितरज से लिप्त रखना, समय-असमय जोर से शब्द करना (बोलना) संघ में भेद करना, कलह करना, दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना,,और गोचरी में अनेषणीय वस्तु को ग्रहण करना भी असमाधिस्थान हैं ।
__ प्रथम असमाधिस्थान दशा समाप्त ।