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आयारवंशा
स्थान कहलाते हैं । अर्थात् इनके सेवन से अपने को, पर को और उभय को इस लोक में और परलोक में असमाधि होती है । इस दशा में ऐसे असमाधिस्थान बीस बतलाये गये हैं; इनके द्वारा चित्त में अशान्ति उत्पन्न होती है । नियुक्तिकार कहते हैं कि यहां बीस यह पद "नेम्म' अर्थात् आधारमात्र हैं, इसलिए इसप्रकार के अन्य अनेक भी असमाधिस्थान होते हैं, उन्हें भी इन आधारभूत बीस के ही अन्तर्गत जानना चाहिए। चित्तसमाधि के लिए सभी असमाधिस्थानों का परित्याग करना आवश्यक बतलाया गया है।
द्रत-द्रतचारी प्रथम असमाधिस्थान हैं । शीघ्रता से दबादब चलने के समान दबादब बोलना, दबादब खाना और दबादब वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखनादि करना भी इसी के अन्तर्गत है । यह दबादब गमन, भाषण, भोजनादि मनवचन-काय से चाहे स्वयं करे, अन्य से करावे या अन्य की अनुमोदना करे, सभी कार्य इस प्रथम असमाधिस्थान के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। शीघ्रतापूर्वक चलने, खाने-पीने और बोलने से आत्मविराधना भी होती है और जीवघात होने से संयम-विराधना भी होती है। इसे प्रथम स्थान देने का आशय यह है कि पांच समितियों में ईर्यासमिति पहले कही गई है। यह सभी शेष समितियों में प्रधान है अतः इसकी विराधना से सब की विराधना और पालन से सभी का आराधन होता है। .
अप्रमार्जितचारी दूसरा असमाधिस्थान है। दिन में या रात्रि में किसी भी स्थान पर रजोहरणादिसे बिना प्रमार्जन किये चलना-फिरना यह दूसरा असमाधिस्थान है ! यहां पर दिये गये "अपि" शब्द से स्थान (खड़े होना) निषीदन (बैठना) त्वक्वर्तन (शरीर को बार-बार इधर-उधर पलटना) उपकरण वस्त्र पात्रादि को बार-बार उठाना रखना आदि कार्यों में तथा मल-मूत्रादि विसर्जन में अप्रमार्जितचारी होना भी सम्मिलित है। • ' इसी प्रकार उक्त कार्यों में दुष्प्रमाजितचारी होना भी तीसरा असमाधिस्थान है। बिना उपयोग के अविधि से, इधर-उधर देखते हुए यद्वा-तद्वा प्रमार्जन करना तीसरा असमाधिस्थान है।
अतिरिक्त शय्यासन रखना चौथा असमाधिस्थान है। जिस पर सोते हैं, उसे शय्या कहते हैं, उसकी लम्बाई शरीर-प्रमाण होती है। आतापना, स्वाध्याय आदि जिस पर बैठकर किया जाता है उसे आसन कहते हैं । इनको प्रमाण से और मात्रा से अधिक रखने पर यथोचित प्रमार्जन और प्रतिलेखन नहीं हो सकने से जीव-विराधना सम्भव है और आत्म-विराधना भी; अतः इसे भी असमाधिस्थान कहा है।