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छेवसुत्तानि तं दुक्खं खलु पुमत्तणए। इत्थित्तणयं साहु। जइ इमस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अत्थि, वयमवि आगमेस्साए इमेयारवाई उरालाइं इत्थिभोगाई भुंजिस्सामो।" से तं साहू।
तृतीय निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। यही निम्रन्थ प्रवचन सत्य है....यावत् ...सब दुखों का अन्त करते हैं।
यदि कोई निर्ग्रन्थ केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो, भूख-प्यास आदि परीषह सहते हुए भी कदाचित् काम-वासना का प्रबल उदय हो जाए तो वह तप संयम की उग्र साधना द्वारा उस काम-वासना के शमनं के लिए प्रयत्न करता है।
उस समय वह निर्ग्रन्थ एक स्त्री को देखता है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है...यावत् ...आपके मुख को कौन-से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं ?
निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करता है। "पुरुष का जीवन दुःखमय है।"
जो ये विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष हैं-वे किसी छोटे-बड़े युद्ध में जाते हैं और छोटे-बड़े शस्त्रों का प्रहार वक्षस्थल में लगने पर वेदना से व्यथित होते हैं । अतः पुरुष का जीवन दुखःमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है।
यदि तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में उस स्त्री जैसे मानुषिक भोगों को भोगूं ।
सूत्र ३१
एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथो णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइए अप्पडिक्कते जाव-अपरिवज्जित्ता
कालमासे कालं किच्चाअण्णतरेसु देवलोएसु देवित्ताए उववत्तारो भवति । से णं तत्थ देवो भवति महड्ढिया जाव-विहरति ।