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________________ १२० छेवसुत्ताणि यदि आचार्यादि आज्ञा दें तो चिकित्सा कराना कल्पता है। यदि आचार्यादि आज्ञा न दें तो चिकित्सा कराना नहीं कल्पता है । प्रश्न-हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहाँ ? । उत्तर-आचार्यादि आने वाली विघ्न-बाधाओं को जानते हैं । सूत्र ६४ वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अण्णयरं ओरालं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उपसंपज्जित्ता णं विहरिसए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता १ आयरियं वा, २ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छेययं वा, जं वा पुरओ काउं विहरइ। कप्पइ से आपुच्छित्ता १ आयरियं वा,.२ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छयेयं वा, जं वा पुरओ काउं विहरइ-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अण्णयरं ओरालं कल्लाणं सिवं धणं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए? तं एवइयं वा, एवइखुत्तो वा ? ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णयरं ओरालं कल्लाणं सिवं, धण्णं, मंगलं, सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णयरं ओरालं कल्लाणं सिवं धणं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। से किमाहु भंते ! आयरिया पच्चवायं जाणंति ।८/६४। वर्षावास रहा हुआ भिक्षु यदि किसी एक प्रकार का उदार, (प्रशस्त) कल्याण कर, शिवप्रद, धन्य कर, मंगलरूप श्रीयुत महाप्रभावक तपःकर्म स्वीकार करना चाहे तो, आचार्य यावत् गणावच्छेदक इसमें से जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछे बिना तपःकर्म स्वीकार करना कल्पता नहीं है,
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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