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समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यक सूत्र में कल्प और व्यवहार सूत्र के पूर्व आयारदशा का नाम कहा गया है-अतः छेद सूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है । इस सूत्र में दस दशाएँ हैं - प्रथम तीन दशाओं में तथा अन्तिम दो दशाओं में हेयाचार का प्रतिपादन है ।
चौथी दशा में अगीतार्थ अणगार के लिए ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अणगार के लिए उपादेयाचार का कथन है ।
पाँचवीं दशा में उपादेयाचार का प्रतिपादन है ।
छठी दशा में अणगार के लिए ज्ञेयाचार और सागार ( श्रमणोपासक ) के लिए उपादेयाचार का कथन है ।
सातवीं दशा में इसके विपरीत है अर्थात् अणगार के लिए उपादेयाचार है और सागार के लिए ज्ञेयाचार है ।
आठवीं दशा में अणगार के लिए कुछ हेयाचार हैं कुछ ज्ञेयाचार और कुछ उपादेयाचार भी हैं ।
इस प्रकार यह आयास्दशा अणगार और सागार दोनों के स्वाध्याय के लिए उपयोगी हैं ।
कल्प - व्यवहार आदि में भी इसी प्रकार हेय ज्ञेय और उपादेयाचार का कथन है ।
छेद प्रायश्चित्त की व्याख्या करते हुए व्याख्याकारों ने आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है । उसका माव यह है कि किसी व्यक्ति का अंग या उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाए कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की सर्वथा सम्भावना ही न रहे तो शल्यक्रिया से दूषित अंग या उपांग का छेदन कर देना उचित है, पर रोग या विष को शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिए क्योंकि रोग या विष के व्याप्त होने पर अशान्तिपूर्वक अकाल मृत्यु अवश्यम्भावी है किन्तु अंग छेदन से पूर्व वैद्य का कर्त्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति को और उसके निकट सम्बन्धियों को समझावे कि आपका अंग या उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो गया है - अब केवल औषधोपचार से स्वस्थ होने की सम्भावना नहीं है, यदि आप जीवन चाहें और बढ़ती हुई निरन्तर वेदना से मुक्ति चाहें तो शल्य क्रिया से इस दूषित अंग- उपांग का छेदन कर वालें; यद्यपि शल्य क्रिया से अंग- उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना होगी, पर होगी थोड़ी देर, इससे शेष जीवन वर्तमान जैसी वेदना से मुक्त रहेगा ।
१. सम० स० २६, सू० १ । उत्त० अ० ३१, गा० १७ । आव० अ० ४, आया० प्र० सूत्र ।