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________________ ५० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध निष्क्रमण और प्रवेश की सुगमता है तथा। पन्नस्स-बुद्धिमान् साधु को वहां। वायणपुच्छणपरिय ट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए- वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोगचिन्ता में कोई विज उपस्थित नहीं होता है। सेवं-वह इस प्रकार। नच्चा-जानकर। तहप्पगारं-उक्त प्रकार की। पुरे संखडिं वा-पूर्व संखडि में या पश्चात् संखडि में। गमणाए-गमन करने के लिए अभिसंधारिज्जा-संकल्प धारण करे। .. मूलार्थ-गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते हुए साधु व साध्वी आहार को इस प्रकार जाने कि जो आहार मांस प्रधान, मत्स्य प्रधान है अथवा शुष्क मांस, शुष्क मत्स्य सम्बन्धी, तथा नूतनवधु के घर में प्रवेश करने के अवसर पर बनाया जाता है, तथा पितृगृह में वधु के पुनः प्रवेश करने पर बनाया जाता है, या मृतक सम्बन्धी भोजन में अथवा यक्षादि की यात्रा के निमित्त बनाया गया है एवं परिजनों या मित्रों के निमित्त तैयार किया गया है ऐसी संखडियों से भोजन लाते हुए भिक्षुओं को देखकर संयमशील मुनि को वहां भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहां जाने से अनेक जीवों की विराधना होने की संभावना रहती है यथा- मार्ग में बहुत से प्राणी, बहुत से बीजः, बहुत सी हरी, बहुत से ओसकण, बहुत सा पानी, बहुत से कीडों के भवन निगोद आदि के जीव तथा पांच वर्ण के फूल, मर्कट मकड़ी का जाला आदि के होने से उनकी विराधना होगी। एवं वहां पर बहुत से शाक्यादि भिक्षु, तथा ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी आदि आए हुए हैं, आ रहे हैं तथा आएंगे तब वहां पर आकीर्ण वृत्ति अर्थात् जनसमूह एकत्रित हो रहा है। अतः प्रज्ञावान भिक्षु को निकलने और प्रवेश करने के लिए विचार न करना चाहिए। क्योंकि बुद्धिमान भिक्षु को वहां पर वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग चिन्ता की प्रवृत्ति का समय प्राप्त नहीं हो सकेगा, इस लिए साधु को वहाँ पर जाने का विचार नहीं करना चाहिए अपितु वह साधु या साध्वी यदि इस प्रकार जाने कि मांस प्रधान अथच मत्स्य प्रधान संखडि में यावत् उक्त प्रकार की संखडि में से आहार ले जाते हुए भिक्षु आदि को देखकर, तथा उस साधु को मार्ग में यदि प्राणी की विराधना की आशंका न हो और वहां पर बहुत से शाक्यादि भिक्षुगण भी नहीं आएंगे, एवं अल्प आकीर्णता को देखकर प्रज्ञावान्-बुद्धिमान साधु वहां प्रवेश और निष्क्रमण कर सकता है, तथा साधु को वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोगचिन्ता में भी कोई विघ्न उपस्थित नहीं होगा, ऐसा जान लेने पर पूर्व या पश्चात् संखडि में साधु जा सकता है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में संखडियों के अन्य भेदों का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि सामिष एवं निरामिष दोनों तरह की संखडि होती थीं, कोई व्यक्ति मांस प्रधान या मत्स्य प्रधान संखडि बनाता था, उसे मांस और मत्स्य संखडि कहते थे। कोई पुत्र वधु के घर आने पर संखडि बनाता था, कोई पुत्री के विवाह पर संखडि बनाता था और कोई किसी की मृत्यु के पश्चात् संखडि बनाता था। इस तरह उस युग में होने वाली विभिन्न संखडियों का प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया गया है और बताया गया है कि उक्त संखडियों के विषय में ज्ञात होने पर मुनि को उसमें भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। इसका कारण पूर्व सूत्र में स्पष्ट कर दिया गया है। प्रथम तो आहार मे दोष लगने की सम्भावना है, दूसरे में अन्य भिक्षुओं का अधिक आवागमन होने से उनके मन में द्वेष भाव उत्पन्न होने की तथा
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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