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________________ ४६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध चाहिए। क्योंकि ऐसे प्रसंग पर यदि साधु गमनागमन करेगा तो अप्कायिक जीवों की एवं अन्य प्राणियों की हिंसा होगी। अतः उनकी रक्षा के लिए साधु को वर्षा आदि के समय पर अपने स्थान पर ही स्थित रहना चाहिए। यह प्रश्न हो सकता है कि यदि सूत्रकार को मल-मूत्र के त्याग का निषेध करना इष्ट नहीं था, तो उसने आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ उसे क्यों जोड़ा? इसका समाधान यह है कि यह संलग्न सूत्र है, जैसा विधि रूप में इसका उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार सामान्य रूप से निषेध के समय भी उल्लेख कर दिया गया है। ऐसा और भी कई स्थलों पर होता है। भगवती सूत्र में एक जगह जीव को गुरुलघु कहा है? और दूसरी जगह अगुरुलघु कहा है। फिर भी दोनों पाठों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि औदारिक आदि शरीर की अपेक्षा से जीव को गुरु लघु कहा है, क्योंकि जीव उन औदारिक आदि शारीरिक पर्यायों के साथ संलग्न है और अगुरुलघु आत्म स्वरूप की अपेक्षा से कहा गया है। अतः यहां पर भी मल-मूत्र का पाठ आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ संलग्न होने के कारण उसके साथ उसका भी उल्लेख किया गया है। परन्तु इससे जिनकल्पी मुनि के लिए वर्षा आदि के समय मल-मूत्र त्याग का निषेध नहीं किया गया है। कुछ ऐसे कुल भी हैं, जिनमें साधु को भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। उन कुलों का निर्देश करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - से भिक्खू वा २ से जाई पुण कुलाईं जाणिज्जा, तंजहाखत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसट्ठियाण वा अन्तो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा ४ लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा त्तिबेमि ॥ २१ ॥ छाया - स भिक्षुर्वा २ अथ यानि पुनः कुलानि जानीयात् तद्यथा - क्षत्रियाणां वा राज्ञां वा कुराज्ञां वा राजप्रेष्याणां वा राजवंशस्थितानां वा अन्तर्बहिर्वा गच्छतां वा संनिविष्ठानां वा निमंत्रयतां अनिमन्त्रयतां वा अशनं वा ४ लाभे सति न प्रतिगृण्हीयात् । पदार्थ : - से- वह । भिक्खू वा २ - साधु वा साध्वी । पुण- फिर से वह । जाई - इन । कुलाई कुलों को। जाणिज्जा - जाने। तंजहा जैसे कि । खत्तियाण वा- क्षत्रियों के कुल । राईण वा-राजाओं के कुल । कुराईण वा-कुराजाओं के कुल । रायपेसियाण वा- राज प्रेष्यों के कुल । रायवंसट्ठियाण वा- राजवंश में स्थित कुलों के । अन्तो वा बाहिँ वा - अन्दर या बाहर अर्थात् घर के अन्दर अथवा बाहर स्थित । गच्छंताण वाजाते हुए अथवा संनिविट्ठाण वा- बैठे हुए। निमंतेमाणाण वा-निमन्त्रण करते हुए । अनिमन्तेमाणाण वा T १ २ भगवती सूत्र, श० २३, उ १ । भगवती सूत्र, श० उ० ९ ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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