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________________ ५१४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध . जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वय को मोक्ष मार्ग मानता है । ज्ञान से दृष्टि मिलती है, मार्ग का बोध होता है, परन्तु वह साध्य तक पहुंचाने में असमर्थ है और क्रिया गतिशील है, परन्तु दृष्टि से रहित होने से सन्मार्ग और कुमार्ग का भेद नहीं कर सकती। इसी अपेक्षा से अकेले ज्ञान को पंगु और अकेली क्रिया को अन्धी माना गया है। और दोनों की समन्वित साधना से साधक अपने साध्य को सिद्ध कर . सकता है। इसलिए आगम में कहा गया है कि जो साधक सब नयों को सुनकर जानकर ज्ञान और क्रिया की साधना करता है वही मुक्ति को प्राप्त करता है। स्थानांग सूत्र में भी बताया है कि जो साधक ज्ञान और चारित्र से युक्त है, वह संसार बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यही पूरे आचारांग सूत्र का सार है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि द्वादशांगी का निचोड़ भी यही है कि ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना से ही आत्मा निर्वाण पद को पा सकता है। क्योंकि, साधक का मुख्य लक्षण निर्वाण पद प्राप्त करना है और आगम या द्वादशांगी के प्रवचन का उद्देश्य भी यही है कि उसके अध्ययन एवं चिन्तन-मनन से साधक ज्ञान और क्रिया को अपने जीवन में साकार रूप देकर कर्म बन्धन से मुक्त हो सके। अस्तु, ज्ञान और क्रिया का सम्यक्तया आराधन एवं परिपालन करना ही मोक्ष मार्ग है। सोलहवां अध्ययन (चतुर्थ चूला) समाप्त ॥श्री आचारांग सूत्रम् समाप्तम्॥ १ ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः। -आचारांग वृत्ति। २ सव्वेसि पि नयाणं बहुविहबत्तव्वयं निसामित्ता। तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू। ३ श्री आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की 'निशीथ' नामक पांचवीं चूला का भी उल्लेख मिलता है। परन्तु वर्तमान में यह चूला आचारांग के साथ संबद्ध नहीं है। उसे छेद सूत्रों में स्थान दे दिया गया है। क्योंकि उसका विषय . आचारांग से संबद्ध नहीं है। आचारांग में साध के आचार का उल्लेख किया गया है और निशीथ में यह बताया गय यदि प्रमादवश कोई साधु आचार पथ से भटक जाता है, तो उसे क्या प्रायश्चित देना चाहिए। इस तरह प्रायश्चित्त से संबद्ध . प्रकरण होने के कारण उसे स्वतंत्र रूप से छेदशास्त्रों के साथ जोड़ दिया गया हो, ऐसा प्रतीत होता है और ऐसा करना उचित भी जंचता है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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