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________________ ५१३ सोलहवां अध्ययन त्तिबेमि॥ विमुत्ती सम्मत्ता॥ आचारांग सूत्रं समाप्तम्॥ ग्रन्थाग्रं ॥२५५४॥ छाया- अस्मिन्लोके परस्मिन् च द्वयोरपि, न विद्यते बन्धनं यस्य किंचिदपि। ... स खलु निरालम्बनमप्रतिष्ठितः, कलंकली भावपथात् विमुच्यते॥१२॥ इति ब्रवीमि। विमुक्तिः समाप्ता। आचारांग सूत्रं समाप्तम् ग्रन्थाग्रं ॥२५५४। . पदार्थ- इमंसि-इस। लोए-लोक में। य-और। परए-परलोक में तथा। दोसुवि-दोनों लोकों में। अपि-पुनरर्थक है। जस्स-जिसका। किंचिवि-किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष आदि का। बंधण-बन्धन। न विजईनहीं है। से-वह। हु-निश्चय ही। निरालंबणं-आलम्बन रहित अर्थात् लोक-परलोक सम्बन्धि आशा से रहित तथा।अप्पइट्ठिए-प्रतिबन्ध से रहित साधु। कलंकली भावपहं-जन्म-मरण रूप संसार के पर्यटन से। विमुच्चईछूट जाता है।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-इस लोक तथा परलोक एवं दोनों लोकों में जिसका किंचिन्मात्र भी राग आदि का बन्धन नहीं है तथा जो लोक तथा परलोक की आशाओं से रहित है, अप्रतिबद्ध है, वह साधु निश्चय ही गर्भ आदि के पर्यटन से छूट जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार मैं कहता हूँ। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत गाथा में पूर्व-गाथाओं में अभिव्यक्त विषय को दोहराते हुए बताया गया है कि जो साधक इस लोक और परलोक के सुखों की अभिलाषा नहीं रखता है, जो राग-द्वेष से सर्वथा निवृत्त हो चुका है और जो अप्रतिबद्ध विहारी है, वह गर्भावास में नहीं आता अर्थात् जन्म-मरण का सर्वथा उच्छेद करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त बन जाता है। - इससे स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति का मार्ग न तो अकेले ज्ञान पर आधारित है और न केवल क्रिया पर। यह ठीक है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान भी साधन है और क्रिया भी साधन है। दोनों मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। परन्तु दोनों की विभाजित रूप से नहीं, समन्वित रूप से आवश्यकता है। यदि उनमें समन्वय नहीं है, तो वह मोक्ष मार्ग में सहायक नहीं हो सकते। कुछ व्यक्ति मुक्ति के लिए ज्ञान साधना पर जोर देते हैं, परन्तु क्रिया का निषेध करते हैं। और कुछ क्रिया को सर्वोपरि मानते हैं परन्तु ज्ञान को आवश्यक नहीं मानते। ज्ञानवादियों का कहना है कि आत्मा एवं संसार के स्वरूप का ज्ञान करना ही मुक्ति है, क्रिया करने की कोई आवश्यकता नहीं है। और इधर क्रियावादी कहते हैं कि मुक्ति के लिए क्रिया ही आवश्यक है। किसी व्यक्ति के आयुर्वेद ग्रन्थ कण्ठस्थ हैं, परन्तु वह उसमें अभिव्यक्त विधि के अनुसार औषध ग्रहण नहीं करता है, तो उसका कोरा ज्ञान उसे रोग से मुक्त नहीं कर सकता है। इसी तरह आचरण के अभाव में सिर्फ ज्ञान ही आत्मा को संसार से छुटकारा नहीं दिला सकता है। दोनों के कथन में सत्यांश हैं, परन्तु वे उस सत्यांश को पूर्ण सत्य मान रहे हैं, इसी कारण उनका कथन मिथ्या माना गया है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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