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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मूलम् - जहाहि बद्धं इहमाणवेहिं, जहाय तेसिं तु विमुक्ख आहिए। अहाता बंधविमुख जे विऊ, से हु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चई ॥११॥ छाया- यथा हि बद्धं इहमानवैः, यथा च तेषां तु विमोक्षः आख्यातः ।
-उन
यथा तथा बन्धविमोक्षयोः यो विद्वान्, स खलु मुनिरन्तकृदिति उच्यते ॥११॥ पदार्थ-हि-निश्चयार्थक है। जहा - जिस प्रकार । इह इस संसार में। माणवेहिं मनुष्यों ने । बद्धंमिथ्यात्वादि के द्वारा बान्धे हैं। य-और। जहा जैसे । तेसिं-उन कर्मों का बन्धा हुआ है। तु पुनः । । विमुक्ख-उ कर्मों के बन्ध से विमुक्त होना। आहिए कहा गया है । जे - जो साधु । बंधविमुक्ख-बन्ध और मोक्ष के । अहातहायथार्थ स्वरूप का। विऊ-वेत्ता है - सम्यक् प्रकार से जानने वाला है। हु-निश्चय ही से वह । मुणी - मुनि । अंतकडेत्ति-कर्मों का अन्त करने वाला । वुच्चई- कहा जाता है।
मूलार्थ - इस संसार में आत्मा ने आस्त्रव का सेवन करके जिस प्रकार कर्म बांधे हैं उसी तरह सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करके उन आबद्ध कर्मों से वह मुक्त हो सकती है। जो मुनिबन्ध और मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानता है, वह निश्चय ही कर्मों का अन्त करने वाला कहा गया है।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। आत्मा जिस प्रकार कर्म को बान्धता है और साधना से जिस प्रकार तोड़ता है, उसका परिज्ञाता मुनि ही इस संसार का अन्त करता है। यह हम देख चुके हैं कि कर्म बन्ध का कारण आस्रव है। मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योगरूप आस्रव से कर्म वर्गणा के पुद्गलों का आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध होता है। जैसे आ में रखे हुए लोहे के गोले में अग्नि के परमाणु प्रविष्ट हो जाते हैं और वह लोहे का मोला आग के गोले जैसा दिखाई देता है। उसी तरह कर्म वर्गणा के परमाणुओं से आवृत्त आत्मा अपने स्वरूप को भूल कर कर्मों के अनुरूप गति करता है। परन्तु सम्यग् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की साधना से आत्मा कर्म आवरण से अनावृत्त हो जाता है। क्योंकि, आस्रव कर्म के आने का द्वार है, तो संवर कर्म के आगमन को रोकने कारण है और तप आदि निर्जरा के साधन हैं। इस प्रकार साधक बन्ध और मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जान कर सम्यक् प्रवृत्ति करता है, तो वह संसार का अन्त करके निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। अतः सर्वज्ञ पुरुषों ने ऐसे साधक को संसार का अन्त करने वाला कहा है।
इससे स्पष्ट होता है कि साधक के लिए संसार में परिभ्रमण कराने वाले और कर्म बन्धन से मुक्त कराने वाले दोनों साधनों की जानकारी करना आवश्यक है। क्योंकि वह आस्रव का यथार्थ ज्ञान करके उससे निवृत्त होकर संवर की साधना से अभिनव कर्मों के आगमन को रोक लेता है और निर्जरा द्वारा पूर्व बंधे हुए कर्मों को समाप्त कर देता है। इस तरह वह कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। अब विमुक्ति अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - इमंसि लोए परए य दोसुवि, न विज्जई बंधण जस्स किंचिवि ।
से हु निरालंबणमप्पइट्ठिए कलंकली भावपहं विमुच्चई ॥१२ ॥