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________________ सोलहवां अध्ययन ५०५ प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि • भी इन परीषहों से कम्पित-विचलित न हो अर्थात् अपने संयम व्रत में दृढ़ रहे। हिन्दी विवचन-प्रस्तुततरमा की बात दोहराई गई है। इसमें यह बताया गया है कि जैसे प्रचण्ड वायु के वेग से भी पर्वत कंपायमान नहीं होता, उसी तरह ज्ञान संपन्न मुनि असभ्य एवं असंस्कृत व्यक्तियों द्वारा दिए गए परीषहों-कष्टों से कम्पित नहीं होता, अपनी समभाव की साधना से विचलित नहीं होता। वह कष्टों के भयंकर तूफानों में भी अचल, अटल एवं स्थिर भाव से अपनी आत्म साधना में संलग्न रहता है। वह उन परीषहों को अपने पूर्व कृत कर्म का फल जानकर समभाव पूर्वक उन्हें सहन करता है और उन कर्मों को या कर्म बन्ध के कारण राग-द्वेष और कषायों को क्षय करने का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'नाणी अदुट्ठचेयसा' पद का अर्थ यह है कि ज्ञानी उन कष्टों को पूर्वकृत कर्म का फल समझकर उसे समभाव पूर्वक सहन करता है। वह इस घोर संकट के समय भी विषमता की ओर गति नहीं करता है। वृत्तिकार ने भी इसी बात को स्वीकार किया है। साधु की सब प्राणियों के प्रति रही हुई समभाव की भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं। मूलम्-उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही। ___ अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहाहि से सुस्समणे समाहिए॥४॥ छाया- उपेक्षमाणः कुशलैः संवसेत् अकान्तदुःखिनः त्रसस्थावरान् दुःखिनः। अलूषयन् सर्वसहः महामुनिः, तथाह्यसौ सुश्रमणः समाहितः॥४॥ पदार्थ- उवेहमाणे-मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता हुआ या परीषहों को सहन करता हुआ। कुसलेहि-गीतार्थ मुनियों के साथ। संवसे-रहे।अकंतदुक्खी-अनिष्ट दुःख-असाता वेदनीय जिनको हो रहा है ऐसे। दुही-दुःखी त्रस और स्थावर जीवों को।अलूसए-किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ। सव्वसहे-पृथ्वी की भांति सर्व प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करे। तहाहि-इसी कारण से ही। से-वह। महामुणी-महामुनि। सुस्मणे-श्रेष्ठ श्रमण। समाहिए-कहा गया है। मूलार्थ-परीषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। सब प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है ऐसा जानकर त्रस और स्थावर जीवों को दुःखी देखकर उन्हें किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सर्व प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि-लोकवर्ति पदार्थों के स्वरूप का ज्ञाता होता है। अतः उसे सुश्रमण-श्रेष्ठश्रमण कहा गया है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मुनि संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता एवं द्रष्टा है। अतः वह कष्टों एवं परीषहों से विचलित नहीं होता है। क्योंकि वह यह भी जानता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय लगता है, दुःख अप्रिय लगता है और संसार में स्थित, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी दुखों से संत्रस्त हैं, इसलिए वह किसी भी प्राणी को संक्लेश एवं परिताप नहीं देता। वह अन्य प्राणियों से.
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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