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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध संयमी और जिनागमानुसार शुद्ध आहार की गवेषणा करने वाले भिक्षु को देखकर कतिपय अनार्य व्यक्ति साधु पर असभ्य वचनों एवं पत्थर आदि का इस तरह प्रहार करते हैं, जैसे संग्राम में वीर योद्धा शत्रु के हाथी पर बाणों की वर्षा करते हैं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में साधु की सहिष्णुता एवं समभाव वृत्ति का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है जैसे युद्ध के समय वीर योद्धा शत्रु पक्ष के हाथी पर शस्त्रों एवं बाणों का प्रहार करते हैं और वह हाथी उन प्रहारों को सहता हुआ उन पर विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार यदि कोई असभ्य, अशिष्ट या अनार्य पुरुष किसी साधु के साथ अशिष्टता का व्यवहार करे, उसे अभद्र गालियां दे या उस पर पत्थर आदि फैंके तो साधु समभाव पूर्वक उस वेदना को सहता हुआ राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करे। उस समय साध उत्तेजित न हो और न आवेश में आकर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करे और न उन्हें श्राप-अभिशाप दे। क्योंकि, इससे उसकी आत्मा में राग-द्वेष की प्रवृत्ति बढ़ेगी और परस्पर.वैर भाव में अभिवृद्धि होगी और कर्म बन्ध होगा। अतः साधु अपनी प्रवृत्ति को राग-द्वेष की ओर न बढ़ने दे। उस समय वह क्षमा एवं शान्ति के द्वारा राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करे। जिसके वश में हो कर वे दुष्ट एवं असभ्य व्यक्ति दुर्व्यवहार कर रहे हैं और इसके द्वारा कर्मबन्ध करके संसार परिभ्रमण बढ़ा रहे हैं। साधु रागद्वेष के इस भयंकर परिणाम को जानकर आत्मा के इन महान शत्रुओं को दबाने का, नष्ट करने का प्रयत्न करे। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को हर हालत में, प्रत्येक परिस्थिति में अपनी अहिंसा वृत्ति का परित्याग नहीं करना चाहिए। उसे सदा समभाव एवं निर्भयता पूर्वक प्रत्येक प्राणी को क्षमा करते हुए राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए।
साधु को और परीषहों के उत्पन्न होने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल एवं निष्कंप रहना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्-तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उईरिया।
तितिक्खए नाणि अदुट्ठचेयसा, गिरिव्व वारण न संपवेवए ॥३॥ छाया- तथाप्रकारैः जनीलितः, सशब्दस्पर्शाः परुषाः उदीरिताः।
तितिक्षते ज्ञानी अदुष्टचेताः, गिरिरिव वातेन न संप्रवेपते॥३॥
पदार्थ- तहप्पगारेहि-तथाप्रकार के।जणेहि-जनों के द्वारा। हीलिए-हीलित अर्थात् तर्जित और ताड़ित किया हुआ तथा। फरुसा ससद्दफासा-तीव्र आक्रोश और शीतोष्णादि के स्पर्श से। उईरिया-उदीरित मुनि।तितिक्खए-उन परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, क्योंकि वह। नाणी-ज्ञानवान् है अर्थात् यह मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही फल है अतः मुझे ही इसे भोगना होगा ऐसा जानता है अतः। अदुट्ठचेयसा-अदुष्ट-कलुषता रहति मन वाला वह मुनि अनार्य पुरुषों द्वारा किए जाने वाले उपद्रवों से।वाएण-वायु से। गिरिव्व-पर्वत की भांति। न संपवेवए-कम्पित नहीं होता अर्थात् जैसे पर्वत वायु से कम्पायमान नहीं होता ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि भी उक्त परीषहोपसर्गों से चलायमान नहीं होता है।
मूलार्थ-असंस्कृत एवं असभ्य पुरुषों द्वारा आक्रोशादि शब्दों से या शीतादि स्पर्शों से पीड़ित या व्यथित किया हुआ ज्ञानयुक्त मुनि उन परीषहोपसर्गों को शान्ति पूर्वक सहन करे। जिस