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________________ ५०६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मिलने वाले दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है, परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। यह उसकी साधुता का उज्ज्वल आदर्श है। और इस विशिष्ट साधना के द्वारा वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ अन्य प्राणियों को कर्म बन्धन से मुक्त करने में सहायक बनता है। . . इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। दुष्ट एवं असभ्य व्यक्तियों पर भी क्रोध नहीं करना चाहिए और उसे सदा गीतार्थ एवं विशिष्ट ज्ञानियों के साथ रहना चाहिए। क्योंकि मूल् के संसर्ग से समय एवं शक्ति का दुरुपयोग होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः साधक को ज्ञानी पुरुषों के सहवास में रहना चाहिए, उनके साथ रहकर वह अपनी साधना को आगे बढ़ा सकता है। इससे उसके ज्ञान में भी विकास होगा और ज्ञानवान एवं चिन्तनशील साधक लोक के यथार्थ स्वरूप को जानकर कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है। अतः साधक को गीतार्थ मुनियों के साथ में रहकर अपनी साधना को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- विऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवों य पन्ना य जसो य वडा॥५॥ छाया- विद्वान् नतः धर्मपदमनुत्तरं, विनीततृष्णस्य मुनेःध्यायतः। समाहितस्याग्निशिखेव तेजसा, तपश्च प्रज्ञा च यशश्च वर्द्धते॥५॥ पदार्थ- नए-विनयवान। विऊ-समयज्ञ। अणुत्तर-प्रधान। धम्मपयं-धर्मपदयति धर्मक्षमा मार्दव आदि के विषय में प्रवृति करने वाले। विणीयतण्हस्स-तृष्णा को दूर करने वाले। ज्झायओ-धर्मध्यान करने वाले। समाहियस्स-समाधिमान। मुणिस्स-मुनि के। अग्गिसिहा व-अग्नि शिखा के समान। तेयसा-तेज। य-और। तवो-तप और। य-पुनः। पन्ना-प्रज्ञा बुद्धि और। जसो-यश। वड्ढइ-अभिवृद्ध होते हैं अथवा अग्नि शिखा की भांति तेज से प्रदीप्त हुए मुनि का तप, प्रज्ञा और यश वृद्धि को प्राप्त होते हैं। मूलार्थ-क्षमा मार्दवादि दश प्रकार के श्रेष्ठ यति-श्रमण धर्म में प्रवृत्ति करने वाला विनयवान एवं ज्ञान संपन्न मुनि-जो तृष्णा रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न है और चारित्र को परिपालन करने में सावधान है, उसके तप, प्रज्ञा और यश अग्नि शिखा के तेज की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत गाथा में संयम से होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है। क्षमा, मार्दव आदि दश धर्मों से युक्त एवं तृष्णा से रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न विनय संपन्न मुनि की तपश्चर्या, प्रज्ञा एवं यश-प्रसिद्धि आदि में अभिवृद्धि होती है। वह निधूर्म अग्नि शिखा की तरह तेजस्वी एवं प्रकाश-युक्त बन जाता है। उसकी साधना में तेजस्विता आ जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि क्षमा, मार्दव आदि से आत्मा के ऊपर लगा हुआ कर्म मैल दूर होता है और परिणाम स्वरूप उसकी उज्ज्वलता, ज्योतिर्मयता और तेजस्विता प्रकट हो जाती है। इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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