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पञ्चदश अध्ययन शुक्ला दशमी के दिन सुव्रत नामक दिवस में विजय मुहूर्त में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर दिन के पिछले प्रहर, जृम्भक ग्राम नगर के बाहर ऋजु बालिका नदी के उत्तर तट पर,श्यामाक गृहपति के क्षेत्र में वैयावृत्य नामक यक्ष मन्दिर के ईशान कोण में शाल वृक्ष के कुछ दूरी पर ऊंचे गोडे और नीचा शिर कर के ध्यान रूप कोष्ट में प्रविष्ट हुए तथा उत्कुटुक और गोदोहिक आसन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल छट्ठ भक्त तप युक्त शुक्ल ध्यान ध्याते हुए भगवान को निर्दोष, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, निर्व्याघात, निरावरण, अनंत, अनुत्तर, सर्वप्रधान केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधना के बारह वर्ष कुछ महीने बीतने पर वैशाख शुक्ला १० को जृम्भक ग्राम के बाहर, ऋजु बालिका नदी के तट पर, श्यामाक गृहपति के क्षेत्र (खेत) में, जहां जीर्ण व्यन्तरायतन था, दिन के चतुर्थ प्रहर में, सुव्रत नामक दिन, विजय मुहुर्त एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर इक्कडु और गोदुह आसन से शुक्ल ध्यान में संलग्न भगवान ने राग-द्वेष एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिक कर्मों का सर्वथा क्षय करके केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। .
प्रस्तुत प्रसंग में मुहूर्त आदि के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि उस समय लौकिक पंचांग की ज्योतिष गणना को स्वीकार किया जाता था। ग्राम, नदी आदि के नाम के साथ देश (प्रान्त) के नाम का उल्लेख कर दिया जाता तो वर्तमान में उस स्थान का पता लगाने में कठिनाई नहीं होती और इससे लोगों में स्थान सम्बन्धी भ्रान्तियां नहीं फैलतीं और ऐतिहासिकों में विभिन्न मतभेद पैदा नहीं होता। परन्तु इसमें देश का नामोल्लेख नहीं होने से यह पाठ विद्वानों के लिए चिन्तनीय एवं विचारणीय है।
केवल ज्ञान के सामर्थ्य का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणई, तं-आगइं गई ठिइंचवणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ॥
छाया- स भगवान् अर्हन् जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वभावदर्शी सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पर्यायान् जानाति, तद्यथा-आगतिं गतिं स्थितिं च्यवनं उपपातं भुक्तं पीतं कृतं प्रतिसेवितं आविःकर्म रहःकर्म लपितं कथितं मनोमानसिकं सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानन् पश्यन् एवं च विहरति-विचरति।
पदार्थ-से-वह। भगवं-भगवान। अरहं-अर्हन्-पूज्य। जिणे-जिन-राग-द्वेष को जीतने वाले। केवली-सम्पूर्ण ज्ञान वाले। सव्वन्नू-सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाले। सव्वभावदरिसी-सर्व भावों-पदार्थों को
१ शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं -पृथकत्ववितर्क सविचार, २ एकत्ववितर्कअविचार, ३ सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपत्ति और, ४ उच्छिन्नक्रियाऽनिवर्ति। इसमें से भगवान पहले दो भेदों के चिन्तन में, ध्यान में संलग्न थे। - आचारांग वृत्ति