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________________ ४६४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने। छाया- ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य एतेन विहारेण विहरमाणस्य द्वादश वर्षा व्यतिक्रान्ताः त्रयोदशस्य च वर्षस्य पर्याये वर्तमानस्य योऽसौ ग्रीष्मस्य द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः वैशाखशुक्लः तस्य वैशाखशुक्लस्य दशमीपक्षे सुव्रते दिवसे विजये मुहूर्ते हस्तोत्तरेण नक्षत्रेण योगोपगते प्राचीनगामिन्यां छायायां व्यक्तायां पौरुष्याम्(पाश्चात्यपौरुष्यां) जृम्भिकग्रामस्य नगरस्य बहिस्तात् नद्याः ऋजुवालुकायाः उत्तरकूले श्यामाकस्य गृहपतेः ऊर्ध्वंजानुअधःशिरसः ध्यानकोष्ठोपगतम्य व्यावृत्तस्य चैत्यस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे शालवृक्षस्य अदूरसामन्ते उत्कुटुकस्य गोदोहिकया आतापनया आतापयतः षष्ठेन भक्तेन अपानकेन शुक्लध्यानान्तरे वर्तमानस्य निर्वाणे कृत्स्ने प्रतिपूर्णे अव्याहते निरावरणे अनन्ते अनुत्तरे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने। पदार्थ- णं-वाक्यालंकारार्थक है। तओ-तदनन्तर। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान। महावीरस्स-महावीर को। एएणं-इस प्रकार के। विहारेणं-विहार से।विहरमाणस्स-विचरते हुओं को। बारस वासा-द्वादश वर्ष। वीइक्कंता-व्यतीत हो गए। य-पुनः।तेरसमस्स-तेरहवें। वासस्स-वर्ष के।परियाए-मध्य में। वट्टमाणस्स-वर्तते हुए। जे-जो। से-यह। गिम्हाणं-ग्रीष्म ऋतु के। दुच्चे मासे-दूसरे मास में। चउत्थे पक्खे-चतुर्थ पक्ष में। वइसाहसुद्धे-वैशाख शुक्ल पक्ष में। णं-प्राग्वत्। तस्स-उस। वेसाहसुद्धस्स (पक्खस्स) -वैशाख शुक्ल पक्ष को। दसमी पक्वेणं-दशमी के दिन। 'सुव्वएणं दिवसेणं-सुव्रत नामक दिवस में। विजएणं मुहुत्तेणं-विजय मुहूर्त में। हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ। जोगोवगएणं-चन्द्रमा का योग आने पर।पाईणगामिणीए छायाए-दिन के पिछले प्रहर में।वियत्ताए पोरिसीएवियत नाम वाली पौरूषी के आने पर अर्थात् पाश्चात्य पौरुषी में।जंभियगामस्स-जृम्मकग्राम नाम के। नगरस्सनगर के। बहिया-बाहर। उज्जुवालियाए-ऋजू वालुका नामक। नईए-नदी के। उत्तरकूले-उत्तर तट पर। सामागस्स-श्यामाक नाम के। गाहावइस्स-गृहपति के। कट्ठकरणंसि-क्षेत्र में। उड्ढजाणुअहोसिरस्सऊपर को जानु और नीचे को सिर इस प्रकार।झाणकोट्ठोवगयस्स-ध्यान रूपी कोष्ट में प्रविष्ट हुए भगवान को। वेयावत्तस्स-वैयावृत्य नामक। चेइयस्स-चैत्य-यक्ष मंदिर के। उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे-उत्तर पूर्व दिग् भाग अर्थात् ईशान कोण में। सालरुक्खस्स-शाल वृक्ष के।अदूरसामंते-न अति दूर न अति समीप। उक्कुडुयस्सउत्कुटुक और। गोदोहियाए-गोदोहिक आसन से। आतावणाए-आतापना। आयावेमाणस्स-लेते हुए। अपाणएणं-निर्जल-पानी रहित। छठेणं भत्तेणं-षष्ठभक्त-दो उपवास पूर्वक। सुक्कज्झाणं तरियाएशुक्ल ध्यान में। वट्टमाणस्स-आरुढ़ हुए भगवान को। निव्वाणे-निर्दोष। कसिणे-संपूर्ण अर्थ का ग्राहक। पडिपुन्ने-प्रतिपूर्ण। अव्वाहए-व्याघात रहित। निरावरणे-आवरण रहित। अणंते-अनन्त। अणुत्तरे-सब से प्रधान। केवलवरनाणदंसणे-सर्व श्रेष्ठ केवल ज्ञान और केवल दर्शन। समुप्पन्ने-उत्पन्न हुए। मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर को इस प्रकार के विहार से विचरते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए। तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास और चौथे पक्ष में अर्थात् वैशाख
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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