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________________ पञ्चदश अध्ययन ४६३ को। जे केइ-जो कोई। उवसग्गा-उपसर्ग। समुप्पजंति-उत्पन्न होते हैं। दिव्वा वा-देव सम्बन्धि। माणुस्सा वा-अथवा मनुष्य सम्बन्धि। तिरिच्छिया वा-तिर्यक् सम्बन्धि। ते-उन। सव्वे-सब। उवसग्गे-उपसर्गों को। समुप्पन्ने समाणे-प्राप्त होने पर उन्हें। अणाउले-अनाकुलता से-शान्त चित्त से। अव्वहिए-स्थिरता पूर्वक। अद्दीणमाणसे-अदीन चित्त होकर तथा।तिविहमणवयकायगुत्ते-मन वचन और काया से गुप्त होकर।सम्मसम्यक् प्रकार से। सहइ-उन उपसर्गों को सहन करते हैं।खमइ-उपसर्ग प्रदाताओं को क्षमा करते हैं। तितिक्खइअदीन मन से सहन करते हैं। अहियासेइ-निश्चल भावों से सहन करते हैं। - मूलार्थ-इस प्रकार विचरते हुए श्रमण भगवान महावीर को देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धि जो कोई भी उपसर्ग प्राप्त हुए वे उन सब उपसर्गों को खेद रहित बिना दीनता के समभाव पूर्वक सहन करते रहे। और वे मन-वचन तथा काया से गुप्त होकर उन उपसर्गों को भली-भान्ति सहन करते और उपसर्ग दाताओं को क्षमा करते तथा सहिष्णुता और स्थिर भावों से उन पर विजय प्राप्त करते थे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भगवान की सहिष्णुता, क्षमा एवं आध्यात्मिक साधना के विकास का वर्णन किया गया है। वे सदा समभाव पूर्वक विचरते थे। कभी भी कष्टों से विचलित नहीं हुए और न भयंकर वेदना देने वाले व्यक्ति के प्रति उन्होंने द्वेष भाव रखा। वे क्षमा के अवतार प्रत्येक प्राणी को तन, मन और वचन से क्षमा ही करते रहे। वह अभय का देवता सब प्राणियों को अभय दान देता रहा। यही भगवान महावीर की साधना थी कि दुःख देने वाले के प्रति द्वेष मत रखो, सब के प्रति मैत्री भाव रखो, सब को क्षमा दो और आने वाले दुःख-सुख को समभाव पूर्वक सहन करो। ___ इस महान् साधना एवं घोर तपश्चर्या के द्वारा राग-द्वेष एवं चार घातिक कर्मों का क्षय करके भगवान ने केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं - मूलम्- तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वीइक्कंता, तेरसमस्स यवासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंभियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकूले सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि उड्ढंजाणू अहोसिरस्स झाणकोट्टोवगयस्स वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सालरुक्खस्स अदूरसामंते उक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छठेणं भत्तेणं अपाणएणं सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स निव्वाणे कसिणे पडिपुन्ने अव्वाहए निरावरणे अणंते अणुत्तरे
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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