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________________ ४६२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध तुष्ट्या स्थानेन क्रमेण सुचरितफलनिर्वाणमुक्तिमार्गेण आत्मानं भावयन् विहरति । पदार्थ - णं-वाक्यालंकारार्थक में है। तओ - तदनन्तर । स० भ० म० श्रमण भगवान महावीर । वोसट्ठचत्तदेहे जिस ने देह के ममत्व और शरीर के संस्कार का परित्याग किया हुआ है। अणुत्तरेणं- प्रधान अथवा अनुपम। आलएणं-स्त्री, पशु, पंडक (नपुंसक) आदि से रहित वसती के सेवन से । अणुत्तरेणं-प्रधानअनुपम । विहारेणं - विहार से । एवं इसी प्रकार । संजमेणं- अनुपम संयम से। पग्गहेणं-अनुपम प्रयत्न से । संवरेणंअनुपम संवर से। तवेणं - अनुपम तप से । बंभचेरवासेणं - अनुपम ब्रह्मचर्य वास । खंतीए - अनुपम क्षमा । मुत्ती - अनुपम निर्लोभासे । समिईए-: ए- अनुपम समिति से। गुत्तीए - अनुपम गुप्ति से । तुट्ठीए - अनुपम तुष्टि से । ठाणेणं- - एक स्थान में कायोत्सर्गादि करके ध्यान करने से। कमेणं अनुपम क्रियानुष्ठान करने से । सुचरियफलनिव्वाण-मुत्तिमग्गेणं सदाचरण से जिसका फल निर्वाण है, और मुक्ति जिसका लक्षण है तथा ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मुक्ति मार्ग के सेवन से युक्त होकर। अप्पाणं- आत्मा को । भावेमाणे- भावित कर हुए। विहरइ-विचरते हैं। 1 मूलार्थ —तदनन्तर शरीर के ममत्व और संस्कार का परित्याग करने वाले श्रमण भगवान महावीर अनुपम वसती के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुपम संयम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, समिति, गुप्ति, सन्तोष, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुपम क्रियानुष्ठान से तथा सच्चरित के फल रूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग-ज्ञान दर्शन चारित्र के सेवन से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की महान् एवं विशुद्ध साधना का उल्लेख किया गया है। वे सदा निर्दोष, प्रासुक एवं एषणीय स्थानों में ठहरते थे और वे ईर्या के सभी दोषों से निवृत्त होकर सदा अप्रमत्त भाव से विहार करते थे और उत्कृष्ट तप, संयम, समिति - गुप्ति, क्षमा, स्वाध्यायकायोत्सर्ग आदि से आत्मा को शुद्ध बनाते हुए विचर रहे थे । कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी का प्रत्येक क्षण आत्मा को राग-द्वेष एवं कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त उन्मुक्त बनाने में लगता था। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुप्पज्जंति दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाउलें अव्वहिए अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्मं सहइ, खमइ तितिक्खड़ अहियासेइ ॥ छाया - एवं वा विहरमाणस्य ये केचित् उपसर्गाः समुत्पद्यन्ते दिव्या वा मानुष्या वा तैरिश्चिका वा तान् सर्वान् उपसर्गान् समुत्पन्नान् सतः अनाकुलः अव्यथितः अदीनमानस: त्रिविधमनोवचनकायगुप्तः सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अध्यास्ते । पदार्थ - एवं - इस प्रकार का । वा समुच्चय अर्थ में आया है। विहरमाणस्स- विचरते हुए भगवान
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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