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________________ ४६६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध देखने वाले।सदेवमणुयासुरस्स-देव, मनुष्य और असुर कुमार देवों के लोगस्स-तथा सर्व लोक के।पजाएपर्यायों को। जाणइ-जानते हैं। तंजहा-जैसा कि आगइं-जीवों की आगति को। गइं-गति को। ठिइं-स्थिति को। चवणं-च्यवन अर्थात् देवलोक में देवों के च्यवन को। उववायं-उपपात अर्थात् नारकी और देव के जन्म स्थान को।भुत्तं-खाद्य। पीयं-पेय पदार्थों को। कडं-किए हुए कार्य को अर्थात् चौर्यादि कर्म को। पडिसेवियंमैथुनादि सेवन को। आविकम्म-प्रकट कार्य को। रहोकम्म-गुप्त कार्य को। लवियं-प्रलाप करते हुए को। कहियं-गुप्त वार्ता को।मणोमाणसियं-जीवों के चित्त और मन के भावों को। सव्वलोए-सर्व लोक के विषय को। सव्वजीवाणं-सर्व जीवों के। सव्वभावाई-सर्व भावों को। जाणमाणे-जानते हुए। पासमाणे-देखते हुए। एवं-इस प्रकार। विहरइ-विचरते हैं। च णं-प्राग्वत्। मूलार्थ-वे भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी, देव, मनुष्य और असुरकुमार तथा लोक के सभी पर्यायों को जानते हैं, जैसे कि-जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पाद तथा उनके द्वारा खाए पीए-गए पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा अन्तर रहस्यों को एवं मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रूप से जानते-देखते हैं। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को तथा समस्त पुद्गलों-परमाणुओं को जानते देखते हुए विचरते हैं। ... हिन्दी विवेचन- इसमें बताया गया है कि भगवान समस्त लोकालोक को तथा लोक में स्थित समस्त जीवों को, उनकी पर्यायों को, संसारी जीवों के प्रत्येक प्रकट एवं गुप्त कार्यों तथा विचारों को तथा अनन्त-अनन्त परमाणुओं एवं उन से निर्मित पुद्गलों एवं उनकी पर्यायों को जानते-देखते हैं। उनके ज्ञान में दुनिया का कोई भी पदार्थ छिपा हुआ नहीं है। लोक के साथ-साथ अलोक में स्थित अनन्त आकाश प्रदेशों को भी वे जानते देखते हैं। केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन संपन्न आत्मा को अर्हन्त, जिन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि कहते हैं। केवल ज्ञान का अर्थ है- वह ज्ञान जो पदार्थों की जानकारी के लिए पूर्ववर्ती मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्याय चारों ज्ञानों में से किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। वह केवल अर्थात् अकेला ही रहता है, और किसी अन्य ज्ञान की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों के समस्त भावों को जानता-देखता है। प्रस्तुत सूत्र में सर्वज्ञ और सर्वदर्शी शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ को पहले समय में ज्ञान होता है और दूसरे समय दर्शन होता है। जब कि छद्मस्थ को प्रथम समय में दर्शन और द्वितीय समय ज्ञान होता है। इस पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में विस्तार से विचार किया गया है और वृत्तिकार ने उस पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। १ अतएव सर्वज्ञो-विशेषांश पुरस्कारेण सर्वज्ञाता, सर्वदर्शी-सामान्यांशपुरस्कारेण सर्वज्ञाता, नन्वहतां केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोः क्षीणामोहान्त्यसमय एव क्षीणत्वेन युगपदुत्पत्तिकत्वेनोपयोगस्वभावात् क्रमप्रवृतौ च सिद्धायां 'सव्वन्नू सव्वदरिसी' इतिसूत्रं यथा ज्ञानप्राथम्यसूचकमुपन्यस्तं तथा 'सव्वदरिसी सव्वन्नू' इत्येवं दर्शनप्राथम्यस्यसूचकं कि न? तूल्यन्यायत्वात्, नैवं, 'सव्वाओ लद्धीओ सागारोवउत्तस्स उव्वजति, णो अणगारोवउत्तस्स'-(सर्वा लब्धयः । साकारोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते नानाकारोपयुक्तस्य) इत्यागमादुत्पत्तिक्रमेण सर्वदा जिनानां प्रथमे समये ज्ञानं ततो द्वितीये दर्शनं भवतीति ज्ञापनार्थत्वादित्थमुपन्यासस्येति, छद्मस्थानां प्रथमे समये दर्शनं द्वितीये ज्ञानमिति प्रसंगाद बोध्यम्। - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वृत्ति, द्वितीय वक्षस्कार।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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