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________________ पञ्चदश अध्ययन ४५९ • समस्त सावद्य योगों का त्याग करके संयम स्वीकार करते ही भगवान को चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान हो गया, इस का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- तओणं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपजवणाणे नामं नाणे समुप्पन्ने अड्डाइजेहिं दीवहिं दोहि य समुद्देहिं सन्नीणं पंचिंदियाणं पजत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ। . छाया- ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सामायिकं क्षायोपशमिकं चरित्रं प्रतिपन्नस्य मनःपर्यवज्ञानं नाम ज्ञानं समुत्पन्नं, अर्द्धतृतीये द्वीपे द्वयोः च समुद्रयोः संज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तानां व्यक्तमनसां मनोगतान् भावान् जानाति। पदार्थ- णं-प्राग्वत्। तओ-तत् पश्चात्। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान। महावीरस्समहावीर को। सामाइयं-सामायिक।खओवसमियं-क्षायोपशमिक। चरित्तं-चारित्र। पडिवन्नस्स-ग्रहण करते ही।मणपजवनाणे-मनः पर्याय ज्ञान।नाम-नाम का। नाणे-ज्ञान। समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ, उस ज्ञान से भगवान। अड्ढाइजेहिं-अढ़ाई। दीवहिं-द्वीपों में। य-और।दोहिं समुद्देहि-दो समुद्रों में।सन्नीणं-मनयुक्त।पजत्ताणंपर्याप्त। पंचिंदियाणं-पञ्चेन्द्रिय। वियत्तमणसाणं-व्यक्त मन वालों के।मणोगयाइं-मनोगत।भावाइं-भावों को।जाणेइ-जानते हैं। मूलार्थ-क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही श्रमण भगवान महावीर को मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिसके द्वारा वे अढ़ाई द्वीप, दो समुद्रों में स्थित संज्ञीपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में मनः पर्याय ज्ञान का वर्णन किया गया है। इस ज्ञान से व्यक्ति अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त सन्नी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जान सकता है जिस समय भगवान ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया उसी समय उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो गया और वे मन वाले प्राणियों के मानसिक भावों को देखने जानने लगे। इस से यह स्पष्ट हो गया कि मनः पर्याय ज्ञान क्षेत्र एवं विषय की दृष्टि से ससीम है और इससे उन्हीं प्राणियों के मानसिक भावों को जाना जा सकता है, जिन के मन है। क्योंकि मन वाले प्राणी ही स्पष्ट रूप से मानसिक चिन्तन कर सकते हैं। अतः उनके चिन्तन से मनोवर्गणा के पुद्गलों के बनते हुए आकारों के द्वारा उनके चिन्तन का, उनके मानसिक विचारों का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। .. इस में दूसरी बात यह बताई गई है कि सामायिक चारित्र की प्राप्ति क्षयोपशम भाव में हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक साधना का ग्रहण क्षायोपशमिक भाव में ही किया जा सकता है, औदयिक भाव में नहीं। क्योंकि सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गई आध्यात्मिक क्रियाएं ही सम्यग् होती हैं और सम्यग् ज्ञान क्षयोपशम भाव में ही प्राप्त होता है। अतः सामायिक चारित्र को क्षायोपशमिक भाव में माना
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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